HomeHealth Jankariआसनों एवं यौगिक क्रियाओं का वैज्ञानिक महत्व

आसनों एवं यौगिक क्रियाओं का वैज्ञानिक महत्व

साइंटिफिक स्टडी ऑफ योगा’ में विभिन्न देशों, विशेषत: भारत में किये जाने वाले आसन, प्राणायाम, बन्ध, ध्यान एवं अन्य यौगिक क्रियाओं के प्रभाव का वर्णन किया गया है। यौगिक क्रियाओं के दौरान (इलेक्ट्रोमायोग्राफिक रिकॉर्डिंग) (ई.एम.जी.), मांसपेशियों की क्रियाशीलता, लचीलापन, मांसपेशीय दबाव व परिवर्तन अंकित किये गए। ई.सी.जी. द्वारा हृदय नियंत्रण, रक्तचाप, रक्त घटकों में परिवर्तन, फेफड़े एवं अन्य श्वास की गहराई, श्वास संयम (कुंभक) की शक्ति, फेफड़ों की क्षमता, अन्तःस्रावी ग्रंथियों व स्नायु संस्थान संबंधी अनेक प्रयोग विश्व में किये गए हैं। 

आसन का वैज्ञानिक महत्व

आसनों से मांसपेशियों में खिंचाव और फैलाव होता है, जिससे उनमें लचीलापन बढ़ता है तथा रक्त संचार की क्रिया संतुलित होती है, जबकि अन्य व्यायामों से मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है, जिससे रक्त वाहिनियाँ टूटती -फूटती हैं और फिर वे विशेष आकार ले लेती हैं, फलत: उसमें कठोरता आ जाती है। 

मेडिकल कॉलेज मद्रास के प्रो. डॉ. लक्ष्मीकांत ने उच्च रक्तचाप तथा कमजोर हृदय वाले रोगियों पर शवासन से (पैरों के नीचे तकिया लगाकर) तथा मजबूत हृदय वाले रोगियों पर हलासन, सर्वांगासन और विपरीतकरणी मुद्रा के प्रयोग से स्फूर्ति एवं शक्ति की वृद्धि आंकी है। उन्हें नींद भी अच्छी आने लगी। ‘सौभाग प्राकृतिक योग चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र, अजमेर’ द्वारा अर्द्धसर्वांगासन, पवनमुक्तासन एवं शवासन के प्रयोग हृदय एवं उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए विशेष उपयोगी पाये गये हैं। आर्थराइट्स में संधि संचालन की कुछ क्रियाओं में पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, शलभासन, सर्वांगासन, हलासन, मत्स्यासन, शवासन से लाभ हुआ है। मधुमेह के रोगियों को धनुरासन, चक्रासन, शलभासन, भुजंगासन, दीर्घश्वसन सूर्यभेदी प्राणायाम तथा शिथिलीकरण के प्रयोगों से लाभ हुआ है । सर्वांगासन, हलासन, मत्स्यासन, शवासन (कायोत्सर्ग), दमे के रोगियों में प्राकृतिक चिकित्सा की कुछ प्रविधियों के प्रयोग के साथ विशेष स्वास्थ्य संवर्धक पाये गए हैं।

आसन का प्रभाव

आसन एवं यौगिक क्रियाएँ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सक्रिय एवं नियंत्रित करती हैं। फलत: शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य एवं शान्ति मिलती है। सर्वांगासन, हलासन, कर्णपीड़ासन, शीर्षासन की स्थिति में इन्वर्टेड पोजीशन (गुरुत्वाकर्षण) के कारण थायराइड, पैराथायराइड, पिट्यूटरी और पिनियल ग्रन्थि की तरफ रक्त संचार तो तीव्र होता ही है तथा साथ ही उनकी मालिश भी अच्छी हो जाती है।

पैरा-सिम्पेथैटिक स्नायु तन्त्र की अति सक्रियता से व्यक्ति दब्बू, भयभीत तथा हीन भावना से ग्रस्त होता है। आसनों का प्रभाव इन दोनों स्नायु संस्थानों पर नियंत्रण अथवा संतुलित करने के रूप में होता है, जिससे व्यक्ति का समग्र विकास होता है।

विवेक (ज्ञान) तथा संवेग में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। विवेक गलत काम करने से रोकता है, लेकिन संवेग कार्य करा देता है। अराजक संवेग के वशीभूत होकर व्यक्ति अपने जीवन को बर्बाद कर डालता है। आसानों द्वारा रीढ़ तथा मस्तिष्क विशेष रूप से प्रभावित होते हैं । फलत: संवेग स्वतः नियंत्रित और संतुलित हो जाता है।

कठोर व्यायाम करने से उत्तकों में तीव्र गति से टूट-फूट होती है। फलत: रक्त में अम्लता, यूरिया तथा कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे थकान की अनुभूति होती है। यौगिक आसनों मे स्नायविक शक्ति के सक्रिय होने से शरीर की नाड़ी-शक्ति सतत् प्राप्त होती है ।

नाड़ी-शक्ति के प्रवाह में व्यवधान आने से शरीर एवं मन रोगी हो जाते हैं। हमारे शरीर में 600 खरब कोशिकाएं हैं। यही कारण है कि आसनों के बाद शरीर रूई या फूल की तरह हल्का, स्फूर्तिवान तथा मन शान्त हो जाता है।

भारहीनता और आसन 

भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अपने दो रूसी साथियों-यूरीमालिशव तथा गेनाडी स्त्रोकालांव के साथ 2 अप्रैल, 1984 को सोयूज टी-2 द्वारा अन्तरिक्ष में पहुंच कर अन्तरिक्षीय यात्रा में होने वाले दुष्प्रभाव को रोकन में प्राणायाम तथा योग के प्रभाव का सफल प्रयोग एवं अध्ययन किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अंतरिक्ष यात्रियों की मांसपेशियों पर भारहीनता का दुष्प्रभाव, शून्याकर्षण स्थिति (जीरो ग्रेविटेशन कंडीशन), सिर की तरफ रक्त संचार के कारण सिर दर्द, चक्कर आना तथा अन्तरिक्षीय कष्ट (स्पेस सिकनेस) का मुकाबला यौगिक क्रियाओं द्वारा सफलता से किया जा सकता है।

भारहीनता की स्थिति के कारण मानवीय चेतना अस्त-व्यस्त हो जाती है। शारीरिक संरचना गुरुत्वाकर्षण खिंचाव में रहने की आदत के कारण स्नायु संस्थान, हृदय, रक्त संचार आदि संस्थानों को गुरुत्वाकर्षण के नियमों के अंतर्गत कार्य करने की आदत हो जाती है, लेकिन अंतरिक्ष में पहुंचते ही सभी संस्थानों को विरोध में कार्य करना होता है। फलतः भारहीनता के कारण मांसपेशियों पर दबाव कम हो जाता है, जिससे सिर की तरफ रक्त संचार की तीव्रता बढ़ जाती है और कटि-शूल भी होने लगता है। इन सभी विषम परिस्थितियों से जुझने में अब तक व्यवहृत सभी उपायों में यौगिक क्रियाओं के प्रयोग से अन्तरिक्ष यात्री अपने आप में काफी स्वस्थता का अनुभव करते रहे हैं। इस सफलता को देखते हुए रूस जैसे सर्वहारावादी देश ने भी अपने अन्तरिक्षीय-प्रशिक्षण में यौगिक क्रियाओं को सर्वोच्च स्थान दिया है।

यौगिक क्रिया का वैज्ञानिक महत्व

पोलैंड के ‘थर्ड क्लिनिक ऑफ मेडिसीन’ के डायरेक्टर जुलियन ने शीर्षासन के प्रभाव का अध्ययन ई.सी.जी. व एक्स-रे आदि उपकरणों द्वारा किया है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शीर्षासन की स्थिति में एक्स-रे से पता चला कि हृदय पर किसी प्रकार का दबाव नहीं था। इसके प्रभाव से रक्त जमने में संतुलन आता है, हृदय रोग के दौरे रोके जा सकते हैं, श्वेत रक्त कण की वृद्धि होती है तथा दिव्य जीवन एवं रोग अवरोधक शक्ति का संवर्धन होता है, यौगिक क्रियाएं अपराध की रोकथाम में विशेष उपयोगी हैं। इस प्रकार के निष्कर्ष अनेक कारागारों में किये गए यौगिक क्रियाओं के अभ्यासों से निकले हैं।

वास्तव में यौगिक क्रियाएं साइकिक, फिजिकल, साइकोसोमेटिक एवं अन्य सभी प्रकार की बीमारियों को दूर करने में सहयोग देती हैं।

शरीर की अदृश्य अलौकिक शक्तियों के उद्घाटन की संभावना यौगिक क्रियाओं में अन्तर्निहित रहती है। यौगिक क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य देहातीत दिव्य चेतना को उद्घाटित करना होता है। इन प्रक्रियाओं से गुजरने पर स्वत: शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। शरीर यंत्र साधना के अनुरूप बनने लगता है। यौगिक क्रियाओं का विशेष प्रभाव अन्तःस्रावी ग्रंथियों पर होता है और अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति ही भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत् में महान् बनता है। ऐसी मान्यता अनेक महापुरुषों के जीवन का अध्ययन कर डॉ. इब्रोगैंकों ने अपनी पुस्तक ‘ग्लैण्डस ऑफ डेस्टिनी’ में स्थापित की है। यौगिक क्रियाएं जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त अन्त:स्रावी ग्रन्थियों व मन पर विशेष नियन्त्रण रखती हैं।

यह भी पढ़ें – प्राणायाम क्या है?

यौगिक क्रियाएँ ही क्यों?

आसन, प्रणायाम, बन्ध, षट्कर्म, ध्यान, कायोत्सर्ग जैसी अनेक यौगिक क्रियाओं से उपर्युक्त वर्णित शारीरिक संस्थान विशेष तौर पर प्रभावित होते हैं। विश्व में यौगिक आसनों व बन्धों से बढ़कर ऐसी कोई अन्य प्रक्रिया अभी तक भी खोजी नहीं जा सकी है, जो विशेषतः अन्तःस्रवी ग्रन्थियों को इतनी सूक्ष्मता से प्रभावित कर सके। डॉ. कुकसेंक ने अंत:स्रावी ग्रंथियों को ऐसा जादुई पिटारा बताया है, जो व्यक्तित्व, मानस अर्थात् जीवन के सर्वांगीण विकास को प्रभावित करती है। यौगिक क्रियाएं सिर्फ स्थूल पार्थिव शरीर को ही प्रभावित नहीं करती हैं बल्कि यह अपने तीव्र प्रभाव से सूक्ष्म अचेतन मानव मस्तिष्क की रहस्यमयी प्रक्रियाओं आदि अनेकानेक अदृश्य गतिविधियों के सुसंचालन में भी सहायक होती हैं।

हमारे शरीर में हजारों ऐसे बिंदु हैं, जो शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करते हैं। इन्हें हम ‘रिफ्लैक्स स्पॉट जोन’ कहते हैं। दिव्य प्राण में ऊर्जा का संचार व नियंत्रण इन बिन्दुओं के द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त ये जोनशरीर के विभिन्न संस्थानों से संबंधित होते हैं। विभिन्न आसनों द्वारा ये जोन सक्रिय होते हैं और शरीर संस्थानों को विषमुक्त तथा जैविक स्नायविक विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा को व्यवस्थित कर हमें स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।

आसन और व्यायाम में अन्तर

आसनों से मांसपेशियों की अपेक्षा स्नायु, स्नायु-बन्ध विशेष रूप से प्रभावित होते हैं। प्रत्येक आसन का प्रभाव रीढ़ तथा उदरस्थ अंगों पर होता है। रीढ़ से 33 जोड़े स्नायु निकल कर शरीर के समस्त अवयवों से जुड़े हुए हैं। फलत: सभी अंगों को समुचित मात्रा में ऊर्जा मिलती है।

आसनों से स्नायु संस्थानों पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ता। कठोर व्यायाम स्नायु संस्थान को थका डालते हैं। व्यायाम से श्वास, हृदय गति तथा रक्तचाप में वृद्धि होने से फेफड़े तथा हृदय पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। ऐसे व्यायाम संवेदी क्रियाओं (सिम्पेथैटिक) को उत्तेजित करते हैं जबकि आसन प्रतिवर्त क्रियाओं (रिफलैक्स एक्टीविटी) को क्रियाशील एवं नियंत्रित करते हैं। फलत: मस्तिष्क पर दबाव कम पड़ता है।

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