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Standing Yoga Poses: खड़े होकर किए जाने वाले आसन, नियम, एवं लाभ

Standing Yoga Poses: आसनों के परिचय की इस लम्बी श्रृंखला में आपने शयन-स्थान, निषीदन- स्थान के प्रकारों का विवरण पढ़ा। आसनों के इस क्रम में अब ऊर्ध्व-स्थानों का विश्लेषण प्रारम्भ कर रहे हैं। वैसे आसन जो खड़े होकर परफॉर्म किये जाते हैं उन्हें हम ऊर्ध्व-स्थान में किये जाने वाले आसन (standing yoga pose) कहते हैं। 

खड़े होकर (ऊर्ध्व-स्थान में) किए जाने वाले आसन (Standing Yoga Poses in Hindi)

ऊर्ध्व-स्थान में सर्वप्रथम समपादासन, ताड़ासन, त्रिकोणासन आदि आसनों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। 

समपादासन

पैरों की सम अर्थात् समान स्थिति, जिस आसन में रहती है, उसे समपाद आसन कहा गया है। मनुष्य की अपेक्षा पशुओं में शारीरिक शक्ति अधिक होती है। मनुष्य भी पशुओं की तरह प्रारम्भ में चौपाया ही होता था। जिस दिन से वह दोनों पैरों पर सीधा खड़ा हुआ तो उसके दोनों हाथ स्वतंत्र हो गये। विकास का नया युग प्रारम्भ हो गया। विकास के इन आयामों को समाजव्यापी मनुष्य की मेधा ने बनाया। 

समपादासन विधि

दोनों पैरों के पंजों को परस्पर मिलाएँ। सीधे खड़े रहें। शरीर को गर्दन, रीढ़ और कटि भाग से पाँव-तल तक सम रेखा में सीधा रखें। दोनों हाथों की हथेलियों को सांथल के पास लगाए रखें। दृष्टि सामने रहे। गर्दन थोड़ी सी आगे झुकी रहे। 

श्वास और समय – श्वास-प्रश्वास सम रखें। लयबद्ध श्वास-प्रश्वास शक्ति को बढ़ाता है। तीन मिनट से प्रारंभ कर तीस मिनट तक बढ़ा सकते हैं। 

पैरों पर सीधा खड़े होने से मेरुदंड सीधा हो जाता है। मेरुदंड के सीधा होने से व्यक्तित्व के विकास में अपूर्व योगदान मिलता है। मनुष्य का मेरुदंड पशुओं की अपेक्षा कुछ विशिष्ट होता है। मेरुदंड सीधा रहने का तात्पर्य है, व्यक्ति में उत्साह, पुरुषार्थ और स्थिरता का विकास। सीधा खड़ा रहना, सीधा चलना और सीधा सोना स्वस्थ जीवन का परिचायक है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – समपाद आसन के अभ्यास से शरीर संतुलित रूप से विकसित होता है। जिन के पैर की बनावट समान नहीं होती, उनके सीधे खड़े रहने से हाथों और कंधों का संतुलन बराबर होने लगता है। समपाद आसन से श्रे स्वास्थ्य की उपलब्धि होने लगती है। शरीर के किसी एक अवयव पर विशेष दबाव नहीं रहता, अत: रक्तसंचार की क्रिया सुविधापूर्वक होती है। मन की एकाग्रता सहज सघती है। गुरुत्वाकर्षण का दबाव कम रहने से शरीर में हल्केपन की अनुभूति होती है। समपाद आसन में लम्बे कायोत्सर्ग का अभ्यास भी किया जा सकता है। जागरूकता के लिए यह आसन उपयोगी है। 

ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव – शरीर में हल्कापन बढ़ने से ग्रन्थियों पर दबाव कम पड़ता है जिससे उनमें संतुलन कायम होता है। 

लाभ – शारीरिक धातुओं को सम रखता है। शुद्ध रक्त-संचार में सुविधा रहती है और मानसिक एकाग्रता बढ़ती है। उच्च कोटि का कायोत्सर्ग होने से शरीर में हल्कापन अनुभव होता है। 

ताड़ासन 

“ताड़” समुद्र के किनारे पाया जाने वाला लम्बा पेड़ होता है। पंजों पर खड़े होकर हाथों को ऊपर की ओर फैलाने से शरीर की आकृति ताड़ के पेड़ जैसी होती है। अत: इसे ताड़ासन कहा जाता है। 

ताड़ासन विधि

भूमि पर सीधे खड़े हो जाएँ। दोनों पैरों को मिलाएँ। हाथों को सिर के दोनों ओर ऊपर उठाएँ । तनाव देते समय श्वास भरें। पंजों पर खड़े होकर हाथों को तनाव दें। हाथ नीचे लाते समय श्वास छोड़ें और एड़ियाँ जमीन पर लगाएँ।

समय और श्वास – आधे मिनट से तीन मिनट तक। यह शीर्षासन का विपरीत आसन है। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – समपादासन की तरह ताड़ासन भी स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डालता है। लम्बाई बढ़ती है। थकान दूर होती है। जागरूकता बढ़ती है। ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव पड़ने से संतुलन बढ़ता है। आलस्य दूर होता है व  स्फूर्ति बढ़ती है। स्नायु-दौर्बल्य मिटता है। स्थिरता बढ़ती है। 

ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव – जब पंजों पर खड़े होते हैं तब अंगूठे और अंगुलियों पर दबाव पड़ता है जिससे पिट्यूटरी ग्रन्थि प्रभावित होती है। फलस्वरूप विवेक का विकास होता है। अंगुलियों से पैरों पर दबाव पड़ने से आँखों की रोशनी ठीक होती है। थायरॉयड ग्रन्थि भी प्रभावित होती है, जिससे आवाज मधुर होती है और स्वभाव मृदु होता है। 

लाभ – इससे लम्बाई बढ़ती है। आलस्य मिटता है, कब्ज दूर होता है। कंधे और हाथ की माँसपेशियां स्वस्थ बनती है। पंजों और एड़ियों की मालिश होने से गतिशीलता बढ़ती है। 

कोणासन

कोणासन में शरीर की आकृति कोण के समान हो जाती है इसलिए इसे कोणासन कहते हैं । 

विधि

समपादासन में सीधे खड़े रहें ।

  1. श्वास भरते हुए दाहिने हाथ को धीरे-धीरे ऊपर ले जाएँ। बाहं कान का स्पर्श करेंगी। 
  2. श्वास छोड़ते हुए कमर, हाथ, कंधे एवं गर्दन को बायीं ओर हाथ झुकाएँ । 
  3. श्वास भरते हुए कमर, गर्दन और हाथ को सीधा करें । 
  4. श्वास छोड़ते हुए हाथ को नीचे लायें। इसी प्रकार बायें हाथ को बायीं ओर फैलाकर इसी तरह कोण बनाएँ । 

श्वास और समय – प्रारम्भ में दो-चार सेकेण्ड तक ही ठहरना पर्याप्त है। धीरे-धीरे समय एक सेकेण्ड से तीन सेकेण्ड तक बढ़ाएँ । श्वास जितनी आसानी से रोक सकें, रोकें । जबरदस्ती न करें। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – कोणासन से हाथ कंधों, गर्दन तथा छाती पर सीधा प्रभाव पड़ने से कमर की मांसपेशियां लचीली होती है तथा पैरों पर भी दबाव पड़ता है। कान पर दबाव पड़ने से आलस्य दूर होता है तथा जागरूकता बढ़ती है। हाथों की निर्बलता दूर होती है।

विशेष – वे व्यक्ति जिन का हृदय कमजोर हो, वे इस आसन को भूमि पर बैठकर भी कर सकते हैं ।  

ग्रंथि तंत्र पर प्रभाव – इस आसन से एड्रीनल तथा थायरॉयड ग्रन्थि प्रभावित होती है। फलस्वरूप ग्रन्थि संबंधी दोष दूर होते हैं। 

लाभ – (1) कटि प्रदेश सुडौल, फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। 

          (2) मुहासों से मुक्ति एवं शरीर में कांति की अभिवृद्धि होती है। 

          (3) कटि -भाग पर दबाव एवं खिंचाव होने से बड़ी आँत प्रभावित होती है, जिससे मलावरोध दूर होता है। 

          (4) पैरों के स्नायुओं को शक्ति प्रदान करता है। 

          (5) मेरुदंड को संतुलित बनाता है । 

          (6) कमर और कुल्हों पर चढ़ी चर्बी को कम करता है। 

          (7) मंदाग्नि, कब्ज, गैस, आँतों की निर्बलता दूर होती है। 

पाद-हस्तासन

इस आसन में पैर और हाथ मिलते हैं। इसलिए इसे पाद-हस्तासन कहा गया है। यह आसन पश्चिमोत्तासन की श्रृंखला का ही है। पश्चिमोत्तासन बैठकर किया जाता है, जबकि इसे खड़े-खड़े कर सकते हैं। 

विधि

सीधे खड़े रहें । दोनों पैर मिले हुए हों। श्वास भरते हुए हथेलियों को आकाश की ओर फैलाएं। श्वास छोड़ते हुए हाथों को पांवों के पंजों की ओर धीरे-धीरे लाएं। कमर का हिस्सा मुड़ेगा, पेट की मांसपेशियां अन्दर की ओर सिकुड़ेगी, नाक घुटनों से लगी रहेगी, लेकिन पैर सीधे रहेंगे। यह खड़े-खड़े पश्चिमोत्तासन की मुद्रा है। 

समय और श्वास – आधे मिनट से प्रारम्भ कर प्रति सप्ताह तीन मिनट बढ़ाएँ । श्वास बाहर जबरदस्ती न रोकें । 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – चर्बी कम होने से मोटापा दूर होता है। उदर संबंधी सभी रोगों को दूर करता है। मेरुदंड व उससे संबंधित मांसपेशियों को ढ़ीला और लचीला बना कर रीढ़ की सभी रक्त-शिराओं को उत्तेजित तथा साफ करता है। प्रजनन अंगों पर अच्छा प्रभाव डालता है व उनके समस्त विकारों को दूर करता है। गर्भाशय की स्थिति को ठीक करता है। चेहरे और मस्तिष्क की ओर रक्त को अच्छी तरह प्रवाहित करता है। सारे शरीर के दूषित विकारों को निष्काषित कर रोग-मुक्त करता है । 

ग्रंथितंत्र पर प्रभाव – इस आसन से एड्रीनल तथा थायरॉयड ग्रंथि पर दबाव पड़ने से ग्रंथियों के स्राव संतुलित होते हैं। | 

लाभ – मोटापा कम होता है। पीठ और कमर का दर्द दूर होता है मोत्तानासन से होने वाले लाभ भी इस आसन से मिलते हैं। अनिद्रा के रोगी को पहले करने से अनिद्रा से मुक्ति मिलती है। 

त्रिकोणासन

त्रिकोणासन शब्द से यह प्रतिभाषित होता है कि इसमें तीन कोण बनते हैं। आसन की मुद्रा करते समय शरीर ऐसी आकृति में आता है जिससे त्रिकोण स्पष्ट दिखाई देता है। 

विधि

दोनों पैरों को फैलाकर सीधे खड़े हो जाएँ। बायें पाँव के पंजे को बाँयी तरफ सीधा करें। दाहिने हाथ को श्वास भरते हुए धीरे-धीरे ऊपर ले जाएँ। बांह कान का स्पर्श करेगी। कमर, कंधे और गर्दन को बायीं ओर झुकाएँ। हाथ भी बांयी ओर सीधा झुकेगा। बाँया घुटना मोड़ें। बाएँ हाथ की हथेली को बाएँ पैर तल के पास रखें श्वास का रेचन करते हुए कुछ झण रुकें। पूरक कर कमर, गर्दन को सीधा करें। हा को धीरे-धीरे शरीर के समान ले आएँ। इस आसन को दायें पैर और दायें ओर भी करें। बिना घुटने मोड़े हाथों से कोण बनाने से कोणासन बनता है।

समय – एक मिनट से धीरे-धीरे तीन मिनट तक का समय बढ़ाएँ । 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – कोणासन से शरीर सुन्दर बनता है । कंधा, गर्दन, बांहें शक्तिशाली बनती है। शरीर में लचीलापन बढ़ता है। संतुलित विकास होने से स्थूलता में कमी आती है। पाचन-तंत्र को ठीक बनाता है। उससे सहज स्वास्थ्य उपलब्ध होता है। 

ग्रंथि तंत्र पर प्रभाव – थायरॉयड, एड्रीनल, गुर्दे आदि को यह विशेष रूप से प्रभावित करता है जिससे स्वभाव में परिवर्तन आता है। रक्त का संचार संतुलित होने से स्वास्थ्य-वृद्धि में भी सहयोगी होता है। 

लाभ – कटि प्रदेश सुडौल, फेफड़े सुदृढ़, मुँहासों से मुक्ति और शरीर में कांति की अभिवृद्धि होती है। कटि भाग पर दबाव एवं खिंचाव होने से बड़ी आंत • प्रभावित होती है जिससे मलावरोध दूर होता है। पैरों के स्नायुओं को शक्ति प्रदान करता है। मेरुदंड को संतुलित बनाता है। कमर और कुल्हे पर चढ़ी चर्बी को कम करता है। मंदाग्नि, गैस, आँतों की निर्बलता दूर होती है। कटि को सुदृढ़ और सुडौल बनाता है। त्रिकोणासन की तरह ही कोणासन किया जाता है। जिसमें पैर मुड़ते नहीं हैं बल्कि सीधे रहते हैं । 

महावीरासन

मध्यपाद शिरासन की तरह महावीरासन स्वास्थ्य और शरीर को सुदृढ़ और सुन्दर बनाता है। महावीरासन शक्ति का प्रतीक है। इस आसन के प्रयोग से व्यक्ति शक्ति का संचय करता है। इसलिए इसका नामकरण भी महावीरासन किया गया है । 

विधि

दोनों पैरों के मध्य दो फुट का फासला रख सीधे खड़े रहें। दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जाकर कोहनियों के पास से हथेलियों से कस कर बाँधे । बाँये पैर को एक फुट और आगे बढ़ाएँ । दोनों पैरों को जमाएँ। श्वास का रेचन करें। मस्तक को नीचे झुकाते हुए बाँये पैर के पंजे को ललाट से स्पर्श करें। कुछ क्षण कुंभक कर रुकें। धीरे-धीरे पूरक करते हुए सीधे खड़े हो जाएँ। पैरों को पुनः दो फुट फासले पर ले गएँ। दाएँ पैर को दायीं ओर आगे एक फुट बढ़ा कर जमाएँ। श्वास का रेचन करें। स्तक को नीचे झुकाते हुए दायें पैर के पंजे को ललाट से स्पर्श करें। कुछ क्षण रुकें। धीरे-धीरे पूरक करते हुए सीधे खड़े हो जाएं। श्वास का रेचन कर हाथ नीचे ले आएं। मूल स्थिति में आ कायोत्सर्ग करें। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – महावीर आसन से शरीर का संतुलन और शक्ति बढ़ती है। गुर्दे, कटि भाग, पेट के भीतरी अवयव इससे स्वस्थ बनते हैं। कब्ज दूर होने से शरीर में हल्कापन बढ़ता है। हाथ और पांव की सक्रियता से उनके दर्द दूर होते हैं। कार्य में तत्परता आती है।

ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव – एड्रीनल, गोनाड्स तथा पिनियल और पिट्युटरी ग्रंथि प्रभावित होती हैं, जिससे आवेग और उत्तेजना पर नियंत्रण बढ़ता है। 

लाभ – घुटने और पैरों के दर्द का विलय होता है। कटिभाग सुदृढ़ होता है। सीने और हाथ की माँसपेशियां सुन्दर और सुघड़ बनती हैं। पेट और कमर का मोटापा कम होता है। हाथ-पैर की शक्ति विकसित होती है। सहने की क्षमता बढ़ती है।

हस्ति शुण्डिकासन

इस आसन में हाथ की आकृति हाथी की सूण्ड जैसी हो जाती है इसलिए इसे हस्ति शुण्डिकासन कहा गया है। हस्ति शुण्डिकासन, महावीरासन और मध्यपाद शिरासन एक ही समूह के आसन हैं और इनका प्रभाव भी प्राय: एक जैसा ही है।

विधि

दोनों पैरों को फैलाएँ। उन में दो फुट का फासला रखें। श्वास भरते हुए हाथों को ऊपर ले जाएँ, श्वास छोड़ते हुए हाथों को दोनों पैरों के बीच से पीछे तक ले आएँ।

फिर श्वास भर कर हाथ ऊपर ले जाएँ। पुनः श्वास छोड़ते हुए, उसी तरह, हाथों को पाँवों के बीच से पीछे ले आएँ। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – ‘हस्ति शुण्डिकासन’ से विशेषतःकटिप्रदेश, हाथ एवं मुखमण्डल प्रभावित होते हैं उनके स्वास्थ्य की अभिवृद्धि के साथ सौन्दर्य में भी अभिवृद्धि होती है। श्वास-प्रश्वास की सक्रियता से फेफड़े स्वस्थ बनते हैं, रक्त की शुद्धि होती है। शरीर में स्फूर्ति आती है, काम करने में आलस्य नहीं रहता ।

ग्रन्थि तन्त्र पर प्रभाव – उपर्युक्त तीनों आसनों में हाइपोथैलेमस, थायरॉयड, पेराथायरॉयड, थायमस और एड्रीनल ग्रन्थि-तंत्र प्रभावित होता है जिससे उनके स्रावों में परिवर्तन होता है। स्रावों के परिवर्तन से भावों का परिष्कार होता है। भावशुद्धि से ग्रन्थि तन्त्रों के संवादी स्थान विशुद्ध एवं सक्रिय होते हैं। 

श्वास और समय – इस आसन को त्वरित गति से करते समय प्रत्येक प्रश्वास के साथ शरीर नीचे की ओर तथा प्रत्येक श्वास के साथ शरीर और हाथ ऊपर आएंगे। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास दीर्घ होने लगेगा। प्रारम्भ में एक मिनट में 10 से 15 बार होगा। धीरे-धीरे इसे गहन ध्यान के साथ जोड़ने से श्वास-प्रश्वास की क्रिया गहरी और दीर्घ होती चलेगी। 

लाभ – हाथों की शक्ति बढ़ती है। कमर के दोष दूर होते हैं। गर्दन और कन्धों के जोड़ों में लचीलापन आता है। 

मध्यपाद शिरासन

पैरों के मध्य सिर को रखने से जो मुद्रा बनती है, उसे मध्यपाद शिरासन कहा जाता है। यह आसन कमर और शरीर को संतुलित बनाने की दृष्टि से उपयोगी है। 

विधि – पाँवों को जितना फैला सकें, फैलाएँ। दोनों हाथों को पीछे नितम्ब पर रखें । श्वास भरते हुए गर्दन एवं कमर को पीछे मोड़ें। दृष्टि आकाश की ओर रखें श्वास को धीरे-धीरे भरते हुए पूर्व मुद्रा में आएं। रेचन कर दोनो हाथों को भूमि रखें । हथेलियां आकाश की ओर रहेंगी। दायें हाथ को बायें हाथ की हथेली मस्तक को हथेलियों पर स्थापित करें। यह क्रिया रेचन में होंगी । पूरक करते हुए कूद कर पंजों के बल बैठें। फिर खड़ी अवस्था में आएं। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – मध्यपाद शिरासन करते समय सिर विपरीत अवस्था में आ जाता है जिसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क, मुख एवं कंधों पर होता है। मस्तिष्क सक्षम एवं सक्रिय बनता है । मुख रक्ताभ एवं सुन्दर बनने लगता है। कंधे शक्तिशाली बनते हैं । कटि-भाग पतला बनता है। पैरों के स्नायुमण्डल मजबूत बनते हैं। गले की नाड़ियाँ सक्रिय होने से आवाज की मधुरता बढ़ती है और उसके दोष दूर होते हैं। फेफड़ों के कोष्ठक सक्रिय होने से उनका दोष दूर होता है। हृदय की धमनियों और रक्त-वाहिनियों के प्रवाह में अधिक सक्रियता आती है। शरीर का संतुलन बनने से सुन्दरता की अभिवृद्धि होती है। पेट की सक्रियता से पाचन-तंत्र स्वस्थ बनता है । 

ग्रन्थियों पर प्रभाव – मस्तिष्क के साथ हाइपोथैलेमस इस आसन से विशेष • प्रभावित होता है । नाड़ी तंत्र सक्रिय होता है। मेरुदंड में लचीलापन आता है। थायरॉयड और पेराथायरायड दोनों प्रभावित होते हैं। वे शरीर के संतुलन के साथ उसके विकास में सहायक होते हैं । थायमस ग्रन्थि के प्रभावित होने से प्रसन्नता और आनन्द का विकास होता है। एड्रीनल और गोनाड्स के प्रभाव क्षेत्र में आने से क्रोध और का पर संयम, नियन्त्रण बढ़ता है । 

समय – आधे मिनट से प्रारम्भ कर प्रति सप्ताह तीन मिनट बढ़ाएं।

लाभ – कटि प्रदेश की मांसपेशियाँ, सुदृढ़ बनती है। वहां से दर्द का निवारण होता है। कंधे, मस्तक, गले के दोषों की निवृत्ति होती है। मुख तेजस्वी बनता है। हृदय एवं धमनियों के लिए यह उपयोगी है । 

गरुड़ासन

गरुड़ पक्षी अपनी चुस्ती एवं संतुलन में माहिर है। पक्षी के इन गुणों से ही आकर्षित होकर योग के आचार्यों के गरुड़ासन का महत्व बताया है। गरुड़ासन उत्थित (खड़े-खड़े) आसनों के क्रम में आता है। किन्तु एक पैर पर विशेष प्रकार से खड़े रहने की विधि ने इसे विशिष्ट आसनों में बना दिया है। 

विधि

दोनों पैर मिलाकर सीधे खड़े रहें। दाँये पैर उठाकर बाँये पैर के चारों और इस प्रकार लपेटें कि बाँयीं साथल पर दाईं सांथल बायीं पिंडली पर दायीं पिंडली जाए। इसी प्रकार दाँए, हाथ को बायें हाथ पर लता को इस तरह लपेटें कि बायें 

हाथ को कोहनी और ऊपर का हिस्सा दाहिने हाथ को बाँह और हाथ से परस्पर सट। हथेलियों को मिलाकर दोनों हाथों को जोड़ें। 

धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए बाँये पैर पर दबाव डालें। पैर थौड़ा मुड़ेगा। कमर और मेरुदण्ड को सीधा रखें। पैर और हाथों के स्नायुओं पर दबाव पड़ेगा। श्वास १. धीरे-धीरे सीधे हो जाएँ। इसी क्रिया को दूसरे पैर और हाथ को बदल कर भरते हुए, करें। 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – गरुड़ासन से स्फूर्ति आती है। शरीर का प्रत्येक अवयव सक्रिय होता है तथा हाथ-पैर सुडौल और शक्तिशाली बनते हैं। चलने में स्फूर्ति बढ़ती है। वज्रनाड़ी एवं साइटिका नाड़ी के दोष दूर होते हैं। वज्र नाड़ी के स्वस्थ होने से पौरुष का विकास अच्छी तरह से होता है। काम संयम की क्षमता का विकास होता है। स्थिरता और एकाग्रता का विकास होता है ? 

ग्रन्थितंत्र पर प्रभाव – गरुड़ासन का सीधा प्रभाव प्रोस्टेट (पौरुष) ग्रन्थियों पर होता है, जिससे पौरूष के विकास में सहयोग मिलता है। यह गर्भाशय और जननेन्द्रियों के दोषों को दूर करता है। मूत्र संबंधी दोष दूर होते हैं। व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है । वज्र नाड़ी सशक्त और सक्रिय होती है, जिससे ब्रह्मचर्य की साधना में सहयोग मिलता है। शरीर के पुट्ठे सुन्दर और सुडौल बनते हैं। जोड़ों में लचीलापन आता है। साईटिका और हर्निया की पीड़ा दूर होती है। 

लाभ – नियमित अभ्यास से नीचे के अवयव शक्तिशाली होते हैं। 

इष्ट वन्दनासन

इष्ट वन्दन का अर्थ है-आदर्श के प्रति विनम्रतापूर्वक समर्पण। वन्दन, नमन को भी कहते हैं। इसका एक और अर्थ स्तुति भी है। किसी के गुणों का कीर्तन भी रूपांतरण में सहयोगी बनता है। गुणों का कीर्तन विधायक भाव है। इससे संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है। 

इष्ट वन्दन में आसनों के भी नौ प्रकार बन जाते हैं। व्यक्ति संख्यानुसार एक दो आदि का उच्चारण करें । 

स्थिति – सर्वप्रथम नमस्कार की मुद्रा में स्थित रहें, पॅजे परस्पर सटे रहे। 

  1. “एक” का उच्चारण करते हुए हाथों को कन्धों के समानान्तर फैलाएँ। कटि भाग को पीछे ले जाकर गर्दन मोड़ें। दृष्टि आकाश में स्थिर रखें । श्वास भरें । 

2.‘‘दो’” का उच्चारण करते हुए, दोनों हाथों को ऊपर ले जाकर परस्पर सटाएँ। शरीर को ऊपर की ओर तानें । श्वास छोड़ते हुए घुटनों पर मस्तक स्पर्श करें। हथेलियों को पाँव के पार्श्व में स्थापित करें । 

3.‘‘तीन” का उच्चारण करते हुए दाहिने पाँव को पीछे फैलाएँ। बाँये पाँव के पंजे के पास हाथों को स्थापित कर, भूमि का मस्तक से स्पर्श करें। श्वास छोड़ें। फिर श्वास भरते हुए गर्दन को पीछे मोड़कर ऊपर आकाश की ओर दृष्टि स्थापित करें। 

  1. ‘‘चार’” का उच्चारण करते हुए बाँयें पैर को पीछे ले जाएँ। श्वास छोड़ें। पैर के पंजों पर शरीर को सम रेखा में रखें। हथेलियाँ पूर्ववत् रहेंगी। दृष्टि सम्मुख स्थापित करें। श्वास-प्रश्वास सम रहे। 
  2. ‘’पाँच” का उच्चारण करते हुए घुटना, सीना, ललाट भूमि को स्पर्श करें। पेट व नितम्ब ऊपर उठे रहेंगे। श्वास का रेचन करें। 
  3. “छह’ का उच्चारण करते हुए, श्वास भरते हुए हथेलियों . पर शरीर को कटि-प्रदेश तक उठाएँ, गर्दन को पीछे मोड़कर ऊपर आकाश की ओर देखें। 
  4. ‘“सात” का उच्चारण करते हुए जमीन स्पर्श करें। स छोड़ें, गर्दन मोड़ें, ठुड्डी से कण्ठ कूप का स्पर्श करें। दृष्टि नाभि पर केंन्द्रित
  5. “आठ” का उच्चारण करते हुए श्वास को भरें। दाहिने पाँव को मोड़ें। हथेलियों के मध्य पाँव रहे। बायां पाँव पीछे फैला रहेगा। श्वास का रेचन करें। मस्तक को भूमि  का स्पर्श करायें। श्वास भर कर आकाश की ओर दृष्टि फैलाएँ।

9.”नौ” का उच्चारण करते हुए बायां पाँव दाएँ पाँव के पास ने आयें । श्वास छोड़ते हुए घुटनों पर नाक लगाएं। 

  1. श्वास भरते हुए सीधे खड़ें हों। मन, वाक् और काया की स्थिरता के साथ चित्त की एकाग्रता बनाएँ। मूल स्थिति में आ जाएँ । 

स्वास्थ्य पर प्रभाव – इष्ट वन्दन सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाने वाला आसन है। इस आसन की रचना इस प्रकार की गई है कि शरीर का प्रत्येक अवयव इससे प्रभावित होता है। इसमें दस आसनों का योग है। स्थिति और दसवें अंक का आसन शरीर को स्थिर और संतुलित बनाता है। यह प्रणाम की मुद्रा का आसन है। विनम्रता की मुद्रा के कारण व्यक्ति के अहंकार का विलय होता है। शरीर लचीला बनता है। भुजाएँ सुन्दर और सुदृढ़ बनती है। गर्दन लचीली होती है। आँखों की रोशनी बढ़ती है। कमर और पेट का मोटापा कम होता है। इससे शरीर सुडौल होता है। सीना मजबूत होता है। शरीर के प्रत्येक अवयव को यह आसन प्रभावित करता है और उसे सुडौल बनाता है। पहला, दूसरा और तीसरा प्रकार मस्तक, गर्दन, पेट और पैरों पर प्रभाव डालता है। चौथा, पाँचवा और छठा पंजों, हथेलियों, सीना, फेफड़ों, पेडू और पेट के भीतरी अवयवों को प्रभावित करता है। सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ कंधों की ढकनीयों, नितम्ब और पिण्डलियों को सुडौल बनाने में सहायक होता है । शरीर के अंगों पर विशेष प्रभाव डालने के लिए आसन करते समय अपने मनोभावों को विधायक बनाएँ। इसलिए एक-दो ही नहीं, इसमें नमस्कार महामन्त्र के नौ पदों को स्थापित किया गया है। नमस्कार महामन्त्र में किसी व्यक्ति विशेष का गुणानुवादन न होकर मात्र गुणों का संकीर्तन है। इससे मन की विशुद्धि और भावधारा की निर्मलता घटित होती है । 

ग्रन्थि तन्त्र पर प्रभाव – ग्रन्थि तन्त्र के स्रावों का हमारी भावधारा से गहरा गंध है। “इष्ट वन्दन” की स्थिति और प्रथम प्रयोग से थायरायड और पैराथायरायड न्थि स्वस्थ बनती है। नमस्कार में अंगूठे का थायरायड से और अँगुलियों का पिट्यूटरी और पिनियल ग्रन्थि से संबंध होने से अहंकार विलीन होकर विनम्रता बढ़ती है । स्मरण शक्ति का विकास होता है। आकाश में फैली हुई अनन्त ऊर्जा ग्रहण की जाती है। दूसरी, तीसरी और चौथी स्थिति में थायरॉयड, पैराथायरायड और थायमस के साथ एड्रीनल ग्रन्थि भी प्रभावित होती है। इन ग्रन्थियों के स्राव संतुलित होकर व्यक्ति को स्वस्थ और शक्तिशाली बनाते हैं। पांचवी, छठीं और सातवीं स्थिति में गुर्दे, पेन्क्रियाज और आइलेण्ड्स ऑफ लेंगरहॉन्स पर प्रभाव पड़ता है ये आसन पेट की क्रियाओं को शुद्ध करते हैं। गोनाड्स पर प्रभाव से व्यक्ति की शक्ति का ऊर्ध्वारोहण होता है। शक्ति रचनात्मक कार्यों में लगती है और विनाशक कार्यों से हटती है। व्यक्ति जागरूकता से इस का अभ्यास करें तो यह आसनों में श्रेष्ठ है जो उसके व्यक्तित्व को बदलने में सहायक सिद्ध हो सकता है। 

लाभ – ‘इष्ट वन्दन’ से गर्दन, कंधे, भुजाएँ, हाथ, छाती, पेट, पीठ व पैरों आदि सभी अंगों का व्यायाम होता है। इससे शरीर सक्रिय एवं लचीला बनता है। पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, उत्सर्जन तंत्र, हृदय और ग्रन्थियाँ इससे विशेष रूप से  प्रभावित होती है। एक वाक्य में कहें तो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए ‘इष्ट वन्दन’ एक सम्पूर्ण आसन है।

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