Yoga Asanas: प्राण शक्ति है, उसे विभाजित नहीं किया जा सकता। जीवन-संचालन की शक्ति अलग-अलग स्थलों पर भिन्न-भिन्न कार्य करती है। योग के आचार्यों ने इनके दृष्टि से शक्ति के पाँच विभाग किए जाते हैं।
प्राण के प्रकार (Prana Ke Prakar)
सम्पूर्ण शरीर में परिभ्रमण करती हुई पंच प्राण नाम इस प्रकार बतलाएं हैं-
- प्राण
- अपान
- समान
- उदान
- व्यान
प्राण – प्राण का मुख्य स्थल कण्ठ नली है, जो श्वास पटल के मध्य है। इसका मुख्य कार्य सक्रियता है। श्वास-प्रश्वास, स्वर-यंत्र, भोजन नलिका आदि से इसका संबंध है।
अपान – अपान का स्थान नाभि स्थल से नीचे है । अपान, उत्सर्जन, यकृत, आंत, पेट, हृदय आदि स्थानों का नियंत्रण करता है। उन्हें शक्ति एवं सक्रियता प्रदान करता है।
समान – समान की स्थिति हृदय एवं नाभि के मध्य है। यह पाचन-संस्थान, क्लोम आदि के रस स्राव को प्रेरित करता है ।
उदान – इससे स्वर यंत्र के ऊपर के स्थान प्रभावित होते हैं। नेत्र, नासिक, स्थान प्रभावित होते हैं। नेत्र, नासिक, कान, मस्तिष्क आदि सक्रिय होते हैं।
व्यान – समस्त शरीर के अवयवों को प्रभावित करता है। इससे समस्त अंगों की संधियां, पेशियां एवं कोशिकाएं क्रियाशील बनती हैं। नाग, कुर्म, क्रीकर, देवदत्त तथा धनंजय पांच उप प्राणों की चर्चा भी योग के ग्रंथों में आती है। उनका अपना विशिष्ट कार्य होता है, जिसमें हिचकी लेना, छींकना, जम्हाई लेना आदि क्रियाएँ होती है ।
प्राण का वैज्ञानिक आधार
पदार्थ की शक्ति गति, स्पन्दन और क्रिया के द्वारा अभिव्यक्त होती है। चैतन्य का मूल गुण ज्ञान, शक्ति और आनन्द है। उसका किंचित् अनुभव प्राण के माध्यम से होता है। प्राण की सक्रियता ही हमारे जीवन का आधार है। उसके बिना व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। वह निर्जीव बन जाता है। प्राण सजीवता का लक्षण है। शरीर में होने वाली सक्रियता का आधार ऊर्जा ही है। मस्तिष्क आदि उसकी अभिव्यक्ति के मुख्य केन्द्र स्थल हैं। ऊर्जा सम्पूर्ण शरीर में शक्ति रूप में प्रवाहित होती है, इससे आज कोई इन्कार नहीं कर सकता। विज्ञान आज पदार्थ से चैतन्य की और यात्रा करने को बाध्य हो रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधानों ने ऐसी सम्भावनाएं उत्पन्न कर दी हैं जिससे कि प्राण के अस्तित्व से विज्ञान इन्कार नहीं कर सकता । उसे पुनर्जन्म, आत्मा के अस्तित्व एवं कर्तव्य आदि तथ्यों को देर-सवेर स्वीकार करना ही होगा ।
वैज्ञानिकों के एक ग्रुप डॉक्टर वी. इंथ्रशिक, वी. ग्रिसवेका, एन. बोरोवेव, एन. शेइस्की, एन. फेंदरोवा, एफ. गिवमुदलिन ने सन् 1968 की खोज के बाद घोषित किया है कि पैड़-पौधे, पशु और मनुष्य अणुओं-परमाणुओं से बने पार्थिव शरीर-मात्र नहीं है। इस शरीर के अतिरिक्त एक ऊर्जा-शरीर भी होता है, जिसे उन्होनें नाम दिया है ‘“द बायोलोजिकल प्लाज्मा बॉडी’ । श्रीमती मेरट के अनुसार- “यह ऊर्जा-शरीर ही भविष्य और दूरानुभूति / टेलीपैथी का अनुभव करता है। “
कजाकिस्तान के फिरोव विश्वविद्यालय के कुछ और वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से पता लगाया कि ऊर्जा शरीर की रचना एक प्रकार के उत्तेजित विद्युत-अणुओं से बने प्रारम्भिक जीवाणुओं के समूह का योग है, पर ऊर्जा-शरीर को मात्र अणु समूह मानना गलत होगा। वह व्यवस्थित, स्वचालित घटक है। एक घटक के रूप में ऊर्जा-शरीर स्वयं का विधुत् चुम्बकीय क्षेत्र विस्तृत करता है।
हाई फ्रीक्वेंसी फोटोग्राफी के अविष्कारक किरलिएन, सन् 1939 से इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कर रहे हैं। एक दिन वे एक जैसी दो पत्तियां लेकर अनुसंधान कर रहे थे। ये एक जैसी दो पत्तियाँ एक ही जाति के पेड़ की थी। दोनो की सूक्ष्म फोटोग्राफी में भारी अन्तर आया। हालांकि देखने में दोनों पेड़ और पत्तियाँ समान ही दिखाई देती थीं, परन्तु फोटोग्राफी से आने वाली बीमारी का पहले ही पता लग गया। बाद में वैज्ञानिक ने बताया कि एक पौधे को बीमारी से ग्रसित किया गया था। इसी प्रकार पौधे और पशुओं की मृत्यु के समय लिए चित्रों से पता लगा कि जैसे-जैसे मृत्यु हुई, वैसे-वैसे जीवाणु शरीर से लिपटे और चिनगारियाँ अंतरिक्ष में विलीन होती दिखाई दीं, स्वल्प समय पश्चात् एक क्षण ऐसा आया, जब पौधे और पशु-शरीर से कोई प्रकाश नहीं निकला। इस प्रकाश का आधार प्राण ऊर्जा है।
हृदय आदि बंद हो जाने से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती, उसकी मृत्यु आयुष्य – प्राण के विलीन होने से ही होती है। श्वास-इन्द्रिय आदि का वियोग होने के बाद भी व्यक्ति जीवित हो उठता है। उसका कारण प्राण की स्थिति ही है। चेकोस्लावाकिया के प्रसिद्ध शिल्पी ब्रेतिस्लाव काफका का मत है कि जीवित प्राणी को एक प्रकार का प्रभा-मण्डल घेरे रहता है। यह प्रभामण्डल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म और संवेदनशील तत्त्व है, जो टेलीपैथी, दूर श्रवण, दूरदर्शन आदि क्रियाओं में कार्य करता है। इसके समाप्त होते ही मृत्यु हो जाती है।
प्राणवायु और प्राण में अन्तर (Pranvayu aur Pran)
शब्द-संकेत की अपनी कठिनाई है। कई शब्द अर्थ की अभिव्यक्ति भिन्न रखते हुए भी एक रूप में प्रयुक्त होते हैं। प्राण शब्द भी इसका अपवाद नहीं है। प्राण को ऊर्जा, शक्ति आदि अनेक रूपों में समझा जाता है। योग-ग्रंथों में प्राण, अपान आदि पाँचों वायुओं को भी प्राण कह देते हैं, परन्तु प्राण और प्राणवायु एक नहीं है। प्राण शक्ति है जो पाँचों वायुओं के रूप में शरीर के विभिन्न अंगों में कार्य करती है। वायु इसलिए प्राण शक्ति को भी प्राण वायु समझा जाने लगा है। प्राण सूक्ष्म ऊर्जा है, जबकि प्राण वायु स्थूल तत्त्व है। प्राण वायु सभी अंगों में काम आती है। इसलिए प्राण तत्त्व है। अत: प्राण और प्राण वायु को एक नहीं समझना चाहिए।
श्वास-प्रश्वास की क्रिया के अवरुद्ध हो जाने को सामान्य भाषा में प्राण निकल गया कहा जाता है, किन्तु श्वास-प्रश्वास जब तक जीवन रहता है, चलता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्वास और प्रश्वास ही प्राण है। प्राण जीवन-शक्ति है, जो सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त है। वह सूक्ष्म शक्ति शरीर के प्रत्येक अंग एवं स्नायुओं 5 में परिभ्रमण करती है, जब कि श्वास-प्रश्वास केवल फेफड़ों में आती-जाती है, जहाँ रक्त के शोधन में सहयोगी बनता है। अतः श्वास-प्रश्वास प्राण का पर्याय नही हो सकती।
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प्राण केन्द्र और उनका जागरण
चैतन्य केन्द्र शरीर के विभिन्न स्थलों में है, जिनका ध्यान के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है-
चैतन्य केन्द्रों की स्थिति
- ज्योति केन्द्र
- दर्शन केन्द्र
- चाक्षुष केन्द्र
- प्राण केन्द्र
- ब्रह्म केन्द्र
- अप्रमाद केन्द्र
- विशुद्धि केन्द्र
- आनंद केन्द्र
- तेजस् केन्द्र
- स्वास्थ्य केन्द्र
- शक्ति केन्द्र
योग में इन स्थलों को चक्र कहा गया है। जैन परम्परा में प्राण की उत्पत्ति का मूल कारण तैजस् शरीर माना गया है। तेजस् शरीर सूक्ष्म शरीर है, जो कार्मण शरीर से संबंधित है। कार्मण शरीर संस्कारों का मूल स्रोत है।
शक्ति जागरण के लिए प्रयोग की प्रक्रिया का उपयोग कर चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान किया जाता है। उससे वे केन्द्रजागृत होते हैं और चेतना को अनावृत बनाने में उपयोगी होते हैं।