HomeHealth JankariLying Asanas: पीठ एवं पेट के बल लेटकर करने वाले आसन

Lying Asanas: पीठ एवं पेट के बल लेटकर करने वाले आसन

lying asanas and their benefits in Hindi: सोकर किये जाने वाले आसान उन अंगों को लक्षित करके चुनी जाती हैं जो लेटने पर प्रभावित होते हैं। ऐसे आसान पीठ, पेट और छाती के बल लेटकर किए जाते हैं। चुनिंदा लेटकर किये जाने वाले योगासनों का विवरण यहां दिया गया है। वे इस प्रकार हैं-

  1. शयनासन (शवासन)
  2. उत्तानपादासन
  3. पवनमुक्तासन
  4. सर्वांगासन
  5. हलासन
  6. कर्ण पीड़ासन
  7. मत्स्यासन
  8. मकरासन
  9. भुजंगासन
  10. शलभासन
  11. धनुरासन
  12. हृदयस्तम्भासन
  13. नौकासन

1. शवासन

पीठ के बल लेटकर किये जाने वाले असानो में से एक महत्वपूर्ण आसान शवासन (कॉर्प्स पोज़ – corpse pose) है। यह आसान अनिंद्रा, मानसिक तनाव, थकावट, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) इत्यादि में अत्यंत लाभदायक है

नियमित योगासन अभ्यास करने वालो को बीच बीच में शवासन का अभ्यास करने की सलाह दी जाती है। कठिन योगासनों के अभ्यास के ठीक बाद शवासन का अभ्यास एक तरह से आवश्यक होता है।

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Lying Asanas: Shavasana - शवासन की विधि, नियम, एवं लाभ
Shavasana|Shavasana|Yog Nidra|Corpse Pose|Infojankari.com

2. उत्तानपादासन

उत्तानपादासन पीठ के बल लेटकर किये जाने वाला आसन है। यह आसन आंतो को स्वस्थ बनता है एवं कब्ज, गैस, मोटापा आदि को जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। इस आसन से नाभि दोष दूर होते हैं और लगातार रहने वाले पेट दर्द में भी राहत मिलती है।

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Uttanpadasana: उत्तानपादासन की विधि, सावधानी, और फायदे
Uttanpadasan|Image source: pixahive

पवनमुक्तासन (Pawanmuktasana or gas release pose)

पवनमुक्तासन यथा नाम तथा गुण है। जैसा की नाम से ही स्पष्ट है यह आसन पवन अर्थात वायु (wind ) को उदर से मुक्त यानि रिलीज़ (release) करता है। इसलिए इसे इंग्लिश में विंड रिलीव पोज़ (wind relieve pose) या गैस रिलीज़ पोज़ (gas release pose) भी कहते हैं। यह आसन वातरोगों (जैसे गैस्ट्रिक, गठिया, इत्यादि) में अत्यंत लाभकारी है। यह आसान पेट की चर्बी (belly fat) को भी काम करता है। जिनके कमर में अधिक दर्द होता हो या घुटने में ज्यादा दर्द हो वो इसे किसी प्रशिक्षित योग गुरु की देख रेख में ही अभ्यास करें।

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पवनमुक्तासन (Pawanmuktasana or gas release pose)
Pawanmuktasana – wind relieve pose – gas release pose

सर्वांगासन

सर्वांगासन जैसा की नाम से ही लग रहा है, एक ऐसा आसन है जो सभी अंगों के कार्यों को सही करता है। शीर्षासन के सारे फायदे सर्वांगासन में भी मिलते हैं। लेकिन इस आसान की विशेषता यह है की जिन लोगो के लिए शीर्षासन करने की मनाही है वो भी इस आसन को कर सकते हैं। दमा की कुछ अवस्थाओं में भी यह फायदेमंद हैं। चूंकि इस आसन में कंधे स्थिर होते हैं, इसलिए उदर के अंगों, आंतो इत्यादि का भार मध्यच्छदा पेशी पर पड़ने से तथा श्वास प्रश्वास में भाग लेने से डायफ्राम की टोन में सुधर होता है। आदमी अपने पैरों पर खड़ा होता है और चलता है। इस तरह चलने और खड़े होने से शरीर के अंग नीचे की ओर ही झूलते रहते हैं। सर्वांगासन के प्रयोग से शरीर के अंगों की स्थिति बदल जाती है और हृदय, फेफड़े, गुर्दे और अन्य अंगों को कम काम करना पड़ता है। रक्त का संचार सुचारू रूप से होता है, और परिणामस्वरूप प्रत्येक अंग को प्रचुर मात्रा में रक्त और ऊर्जा प्राप्त होती है।

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हलासन

इस आसन में शरीर की आकृति खेती करने वाले साधन – हल की तरह हो जाती है, इसलिए योगियों ने इसे हलासन की संज्ञा से अभिहित किया है। हलासन, सर्वांगासन की श्रृंखला का आसन है। सर्वांगसन की स्थिति के पश्चात् पैरों को सिर की ओर ले जाकर भूमितल से स्पर्श करने पर, हलासन निष्पन्न होता है।

विधि

स्थिति- आसन पर पीठ के बल लेटें। दोनों पैरों को मिलायें। हाथ शरीर के बराबर फैले रहें। हथेलियाँ भूमि को स्पर्श करें।

1. श्वास भरते हुए पैरों को धीरे-धीरे ऊपर उठायें। 90° का कोण बनायें। . श्वास छोड़ें।

2. पैरों के पंजों को मस्तक के उपर से ले जाते हुए सिर के पीछे भूमि का धीरे-धीरे स्पर्श करायें। पैर सीधे रहेंगे ।

3. श्वास लें । कमर व कंधे को भूमि पर लाते हुए 90° का कोण बनायें। श्वास का रेचन करें ।

4. पुन: श्वास भरें। पैरों को सीधा रखें। रुक-रुक कर धीरे-धीरे भूमितल पर आ जायें। श्वास छोड़ें, शरीर को शिथिल होने दें।

विशेष – इसी आसन में यदि दोनों घुटनों को मोड़कर कान से स्पर्श कराया जाये तो कर्णपीड़ासन की स्थिति बन जाती है।

समय और सावधानी – आधा मिनट से प्रारंभ करें । प्रति सप्ताह आधा
मिनट बढ़ायें। तीन मिनट तक के अभ्यास को स्थिर बनायें। आसन करते और वापस लौटते समय शीघ्रता बिल्कुल न करें। जिन लोगों को उच्च रक्तचाप, दिल के दर्द, स्लिप डिस्क हो, वे यह आसन न करें ।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला यह प्रमुख आसन
है। हलासन से दोहरा लाभ पहुँचता है। इसके करते समय सर्वांगासन सहज ही हो जाता है। सर्वांगासन से होने वाले प्रभाव स्वतः इसमें आ जाते हैं। सर्वांगासन के पश्चात् पैरों को जब भूमितल की ओर लाते हैं, जब सीना, पीठ, कंधे, पैर, कटि का

भाग मेरुदंड आदि में विशेष खिंचाव आता है, जिससे रक्त का संचार सम्यक् रूप से होने लगता है। इससे स्नायु शक्तिशाली और सुदृढ़ बनते हैं। कंठ का स्थान, पेट के विभिन्न अवयव इससे स्वस्थ होते हैं। टाँसिल की गाँठों को यह ठीक करता है।

सीना, हृदय और कंधे की माँसपेशियों की अच्छी मालिश होने से वे स्वस्थ रहते हैं। इनमें ठहरे हुए दोष दूर होते हैं।

हलासन से पेट का बढ़ना रुकता है, शरीर में स्फूर्ति और गतिशीलता का विकास होता है। चर्बी दूर होती है, जिससे मोटापे में कमी आती है।

चुल्लिका ग्रन्थि पर विशेषदबाव पड़ता है। परिणामस्वरूप चयापचय व्यवस्थित होता है। विशुद्धि केंन्द्र को प्रभावित करने से शरीर का संतुलन रहता है। शक्ति का विकास होता है। मेरुदंड की माँसपेशियों के शक्तिशाली बनने से शरीर स्वस्थ रहता है।

ग्रन्थि तन्त्र पर प्रभाव – हलासान से गोनाड्स, एड्रीनल, थायमस, थायरायड और पेराथायरायड विशेष रूप से प्रभावित होती है। हलासन करते समय शरीर की जो आकृति बनती है, वह उदर के भीतरी अवयवों-गुर्दे, छोटी आँत, पक्वाशय, आमाशय और तनुपट को प्रभावित करती है। पिनियल के हॉर्मोन्स संतुलित होने से व्यक्ति को काम, क्रोध आदि संवेगों से छुटकारा मिलता है। वह सहज संतुलित होने लगता है।

सर्वांगासन में जो ग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं, हलासन में भी वे ही ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं, जिनका विवरण पीछे दिया जा चुका है।

लाभ – इससे कमर, गर्दन एवं पैरों की मालिश होती है। मेरुदंड लचीला और शक्तिशाली बनता है, जिससे व्यक्ति स्वस्थ रहता है। शरीर के वजन को कम करने के लिए हलासन उपयोगी है। इससे मधुमेह भी ठीक होता है।

कर्णपीड़ासन

हलासन का अवलोकन करें। हलासन की स्थिति में घुटने मोड़कर कानों के पास लाकर घुटनों से कानों पर दबाव डालें। बाए हाथ से बाँया कान और दाहिने हाथ से दाहिना कान पकड़ें। इससे कानों में हल्की-सी पीड़ा होगी। इसलिए इसे कर्णपीड़ासन कहा गया है।

मत्स्यासन

सर्वांगासन, हलासन के तुरन्त पश्चात् मत्स्यासन किया जाता है। यह आसन मत्स्य की आकृति से मिलता है, इसलिए इसे मत्स्यासन कहा गया है। इस आसन में पानी पर मत्स्य के सदृश रहा जा सकता है। नाक पानी के ऊपर रहती है, जिससे डूबने की स्थिति नहीं बनती। तैराक योगी इस आसन में घंटों पानी पर पड़े रहते हैं

विधि

पद्मासन की स्थिति में लेटें। लेटने की मुद्रा में आने के लिए हाथों की कोहनी को धीरे-धीरे पीछे ले जाएँ। पीठ पीछे झुकेगी। कोहनियों के सहारे शरीर को टिकाते हुए लेटने की मुद्रा में आ जाएँ। हाथों की हथेलियों को कंधों के पास स्थापित करें। पीठ और गर्दन को ऊपर उठायें। सिर का मध्य भाग भूमि से सटा रहेगा। हाथ वहाँ से उठाकर बाँये पैर का अंगुठा दाँये हाथ से पकड़ें और दाँये पैर का अंगूठा बाँये हाथ से पकड़ें। कमर का हिस्सा भूमि से ऊपर रहेगा। आँखें खुली रहेंगी।

वापस मूल स्थिति में आने के लिए हाथों की हथेलियों को पुन: कंधों के पास स्थापित करें। गर्दन और पीठ को सीधा करें। पद्मासन खोलकर लेटने की मुद्रा में आयें। शरीर को शिथिल छोड़ें।

समय और श्वास – मत्स्यासन, सर्वांगासन और हलासन का विपरीत आसन है। सर्वांगासन का पूर्ण लाभ मत्स्यासन करने से ही मिलता है। इस में श्वास-प्रश्वास को दीर्घ रखें । जितना समय सर्वांगासन में लगाएँ, उसका आधा समय इसमें लगायें ।

इस आसन को जो पांच से दस मिनट करना चाहें, वे अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी आसन में कर सकते हैं। प्रत्येक प्राणायाम में पाँच-पाँच सैकेण्ड का अन्तर रखें। आभ्यन्तर और बाह्य कुम्भक भी करें। प्राणायाम के इस प्रयोग से ज्ञानतंतु सक्रिय होते हैं। पाचन-तंत्र सक्षम बनता है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – मत्स्यासन मेरुदंड को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण आसन है। सरल-सा दिखाई देने वाला यह आसन अपने में अनेकानेक विशेषताओं को समेटे हुए है। जिन लोगों के मेरुदंड के मनके ठीक काम नहीं कर रहे हों, उनको इस आसन से अत्यधिक लाभ मिलता है। मेरुदंड स्वस्थ रहता है। हलासन में जहाँ मेरुदंड आगे की ओर झुकता है, वहाँ मत्स्यासन में उसके विपरीत खिंचाव होता है । इससे मेरुदंड का संतुलन बनता है और गर्दन तथा कन्धे में ठहरे हुए दोष दूर होते हैं। स्कन्ध सुदृढ़ और शक्तिशाली बनते हैं। आसन में पेट के भीतरी अवयवों पर दबाव पड़ता है, जिससे पाचक-रस पर्याप्त मात्रा में बनते हैं और जठराग्नि को प्रदीप्त करते हैं। पेन्क्रियाज सक्रिय बनता है। उसके स्राव बराबर होते हैं। मधुमेह का निवारण होता है।

मत्स्यासन में किया गया पद्मासन विशेष रूप से शुक्र और डिम्ब ग्रन्थियों को प्रभावित करता है। धातु क्षय और स्वप्नदोष आदि दूर होते हैं। व्यक्ति कांतिमय और तेजस्वी उद्भाषित होने लगता है। सीना चौड़ा होता है। फेफड़ों का एक-एक कोष्ठक स्वस्थ बनता है।

थायरॉयड और पैराथायरॉयड ग्रन्थियों के स्राव में संतुलन होने से शरीर का संतुलित विकास होता है।
दोनों आँखों के मध्य भृकुटी पर ध्यान स्थिर करने से विचारों की चंचलता दूर होती है।

ग्रन्थि-तन्त्र पर प्रभाव – गोनाड्स, एड्रीनल, थायमस, थायरायड, पैराथायरायड, पिट्यूटरी और हाइपोथैलेमस सभी ग्रन्थियों पर यह सम्यक् प्रभाव डालता है। उनके स्रावों में संतुलन और नियमितता आती है। व्यक्ति की कार्य- क्षमता का विकास होता है। जो व्यक्ति अधिक समय तक कुर्सियों पर काम करते हैं, उन लोगों की शक्ति को बढ़ाने के लिए एवं तनाव दूर करने के लिए यह उपयुक्त आसन है। जो व्यक्ति मेरुदंड को लम्बे समय तक सीधा करके ध्यान नहीं कर सकता, वह इस आसन में गर्दन को सीधा रखकर, लम्बे समय तक लेटे-लेटे ही ध्यान कर सकता है।

लाभ – इससे दमा, श्वास, कांस आदि की पीड़ा दूर होती है। गर्दन को पीछे की ओर मोड़कर रखने से रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक होता है। स्मरण शक्ति विकसित होती है।

मत्स्यासन से गर्दन, सीना, हाथ, पैर एवं कमर की नाड़ियों के दोष दूर होते हैं । आँख, कान, टॉन्सिल के दोषों और सिर-दर्द से मुक्ति मिलती है। प्राण शक्ति का विकास होता है। शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आने लगती है। एकाग्रता बढ़ती है। ब्रह्मचर्य के विकास में सहायक बनता है। कमरदर्द, स्नायु दुर्बलता, गर्दन व शिर- शूल से मुक्ति मिलती है।

मकरासन

मकरासन विश्राम का आसन है। मगरमच्छ पानी के भीतर तैरता रहता है। विश्राम की स्थिति में वह अपना मुँह पानी की सतह से ऊपर कर लेता है। मकरासन में भी ऐसी ही स्थिति बनती है, जिससे शरीर को स्थिर और शिथिल अवस्था आने से विश्राम मिलता है।

विधि

स्थिति – मकरासन में पेट और सीने के बल भूमि पर लेटा जाता है। की कोहनियों को मोड़कर ठुड्डी और जबड़ों के पास हथेलियाँ स्थापित करें। पैरों को सीधा करें।

समय और श्वास-प्रश्वास- आधा मिनट से तीन मिनट तक। श्वास- प्रश्वास दीर्घ एवं शांत रहे।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – विश्राम से तनाव का विसर्जन होता है, जिससे शरीर के दोष दूर होते हैं। पढ़ने-लिखने आदि कार्यों से गर्दन का हिस्सा सदैव नीच की

ओर झुका रहता है। इस झुकाव से कंधे और गर्दन की मांसपेशियों में तनाव आने लगता है। लगातार तनाव से ग्रस्त पेशियों में दर्द का प्रादुर्भाव होने लगता है। मकरासन में गर्दन को पीछे की ओर से मोड़ मुख को ऊपर ले जाते हैं, जिससे . गर्दन और कंधे की मांसपेशियाँ स्वस्थ और शक्तिशाली बनती हैं। यह टॉन्सिल को भी ठीक करता है।

ग्रन्थि-तन्त्र पर प्रभाव – मकरासन में थायरायड ग्रन्थि प्रभावित होती है। थायरायड, पैराथायरायड ग्रन्थियाँ क्रमशः शरीर के विकास और ह्रास में सहयोगी बनती है। थायरायड ग्रन्थि के संतुलन से शरीर स्वस्थ और सुडौल बनता है ।

लाभ – शरीर को विश्राम मिलता है। रीढ़ एवं गर्दन को सीधा करता है। गर्दनएवं जबड़ों की पीड़ा का शमन करता है। इससे स्वर की मधुरता और उच्चारण की शुद्धता बढ़ती है। गले की अन्य बीमारियों को भी यह ठीक करता है।

भुजंगासन

• भुजंग संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ सर्प होता है। सर्प फुर्तीला प्राणी है। भुजंगासन करते समय व्यक्ति के शरीर की आकृति व स्थिति सर्प के सदृश जान पड़ती है। साथ ही भुजंगासन में श्वास छोड़ते समय मुख से सर्प के फुफकार की आवाज होती है, इसलिए इसे भुजंगासन कहा जाता है। भुजंगासन को सर्पासन भी कहते हैं ।

भुजंगासन का पहला प्रकार

स्थिति – सीने और पेट के बल भूमि पर लेटें। पैरों के अंगूठे भूमि का स्पर्श करते हुए परस्पर सटे रहेंगे। दोनों हाथों की हथेलियाँ बगल की पसलियों से एक फुट दूर रहेंगी।

1. नाक से श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को धीरे-धीरे आधा फुट के लगभग ऊपर उठाएँ ।

2. मुख से सर्प की तरह फुफकार करते हुए श्वास बाहर निकालें । इसमें दांत परस्पर सटे रहें व ओंठ खुले रहें ।

3. श्वास को भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएँ। इसमें नाभि तक का भाग ऊपर उठाया जाता है। हाथों की कुहनी सीधी रहेगी। गर्दन को जितना पीछे ले जा सकते हैं, ले जाएँ। ऊपर आकाश को देखने का प्रयत्न करें। श्वास जितनी आराम से रोक सकें, रोकें ।

4. मुँह से फुफकार करते समय श्वास का रेचन करें और गर्दन एवं सीना भूमि की ओर ले आएँ। शिथिलता की मुद्रा में विश्राम करें।

भुजंगासन का दूसरा प्रकार

स्थिति – पहले की तरह सीने के बल भूमि पर लेटें । हाथ सीने से आधा फुट

1. श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को आधा फुट ऊपर उठाएँ ।

2. फुफकार करते हुए मुँह से श्वास को बाहर निकालें । ध्यान रहे दाँत बन्द व ओंठ खुले रहें ।

3. नाक से श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएँ। नाभि तक का भाग ऊपर उठेगा, हाथ सीधे हो जाएँगे। आराम से, सहजता से श्वास जितनी देर रोक सकें, रोकें ।

4. फुफकार करते हुए मुँह से श्वास का रेचन करें। धीरे-धीरे सीने और गर्दन को भूमि पर ले आएँ। शिथिलता की मुद्रा में आएँ ।

भुजंगासन का तीसरा प्रकार

स्थिति – सीने के बल आराम से लेटें। हाथ सीने व बगल के पास सटाएँ ।

1. नाक से श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को आधा फुट ऊपर उठाएँ।

2. मुंह से फुफकार करते हुए श्वास को बाहर निकालें। ध्यान रहे दांत बंद व ओंठ खुले रहें ।

3. श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएँ। जितना पीछे ले जा सकें, ले जाएँ। इसमें हाथ कोहनी से मुड़े रहेंगे व छाती तक का भाग ऊपर उठाया जाता है। इस स्थिति में आराम से श्वास को जितना रोक सकें, रोकें।

4. फुफकार करते हुए मुख से श्वास का रेचन करें। सीने और मुख को भूमि पर ले आएँ। शिथिलता की मुद्रा में आएँ ।

भुजंगासन का यह विशिष्ट प्रकार है। भुजंगासन के पहले प्रकार में हाथों को पसलियों से एक फुट दूर, दूसरे प्रकार में आधा फुट एवं तीसरे में पास रखकर अभ्यास करते हैं। उससे सीने और फेफड़े को पूरा फैलने का अवसर मिलता है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव- श्वास और प्रश्वास के इस क्रम में प्राणवायु का ग्रहण अधिक होता है और अशुद्ध वायु का निष्कासन पूरी तरह से हो जाता है, जिससे रक्त का शोधन भली-भाँति होता है। यह मेरुदंड को विशेष रूप से प्रभावित करता है। पहले प्रकार से रीढ़ के अंतिम भाग तक खिंचाव पड़ता है, जिससे कमर का दर्द दूर होने लगता है। दूसरे और तीसरे प्रकार में मध्य और ऊपर के मनके और कंधे के भाग विशेष रूप से प्रभावित होते हैं। पूरे पृष्ठ भाग की माँसपेशियों पर खिंचाव और शिथिलीकरण से वे स्वस्थ और शक्तिशाली बनती हैं, भुजंगासन के इस क्रम को करते समय श्वास भरते हुए, सर्वप्रथम मुख, कंधे को आधा फुट ऊपर उठाकर फुफकारते हुए रेचन (श्वास छोड़ना) करते हैं। दाँत परस्पर सटे रहने से दर्द एवं बदबू दूर होती है। पूरक (श्वास भरना) करते हुए भुजंगासन करने से फेफड़ों के कोष्ठकों को अधिक प्राणवायु प्राप्त होती है। उनकी ग्राह्य शक्ति सुव्यवस्थित होने लगती है।

भुजंगासन में मेरुदंड, कंधे, गर्दन और मुख पर विशेष खिंचाव पड़ता है, जिससे इनके अवयवों को प्रचुर मात्रा में रक्त मिलता है और वे शक्तिशाली बनते हैं। पेडू से लेकर आमाशय तक का हिस्सा भी प्रभावित होता है। पेट की क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन तंत्र, विसर्जन तंत्र पर सम्यक् दबाव पड़ता है, जिससे पाचन-क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन ठीक होने से मल का विसर्जन ठीक होने लगता है।

पैर के अंगूठे से लेकर पेडू के भाग तक की माँसपेशियों पर खिंचाव आने से उनकी शक्ति विकसित होती है। पैर और घुटने का दर्द भी इससे सहज दूर होने लगता है।

भुजंगासन सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करता है। पैरों के नख से लेकर सिर की चोटी तक का भाग इससे स्वस्थ बनता है। भुजंगासन परिपूर्ण आसन है। भुजंग सर्वभक्षी कहलाता है। सब कुछ खाकर उसे पचाने की क्षमता भुजंग में होती है। जठराग्नि को प्रदीप्त करने में भुजंगासन विलक्षण है। सामान्य भुजंगासन में श्वास भरकर गर्दन, मुख और सीने को ऊपर उठाते हैं। श्वास का रेचन करते हुए सीने, गर्दन को नीचे लाते हैं। यह प्रचलित भुजंगासन है।

ग्रन्थि-तंत्र पर प्रभाव – भुजंगासन से प्रभावित होने वाली प्रमुख ग्रंथियाँ हैं – थायमस, थायरायड, पिट्यूटरी और गौण रूप से एड्रीनल तथा गोनाड्स ।

थायमस – यह सीने के मध्य में स्थित है। इसके स्रावों से स्नायु-संवर्द्धन होता है। थायमस ग्रन्थि का स्राव समुचित न हो तो स्नायुओं का विकास भली- भाँति नहीं हो पाता और व्यक्ति दुर्बल होने लगता है। स्नायु संस्थान को प्रभावित करने वाली इस ग्रन्थि का स्वस्थ रहना नितान्त अपेक्षित है। भुजंगासन के समय जब हथेलियों पर उठकर सीने को सीधा करते हैं, तब थायमस पर समुचित दबाव पड़ता है, जिससे वह व्यवस्थित रूप से कार्य करने लगती है। गर्दन को मोड़कर ऊपर आकाश की ओर देखते हैं, तब थायरायड ग्रन्थि पर सम्यक् रूप से दबाव और खिंचाव पड़ता है। परिणामत: थायरायड ग्रन्थि के स्राव व्यवस्थित होते हैं, जिससे व्यक्ति का शरीर व्यवस्थित रूप से विकसित होता है।

आकाश की ओर दृष्टि फैलाते समय पिट्यूटरी ग्रन्थि पर खिंचाव पड़ता है, जिससे उसके हॉर्मोन्स के स्राव पर प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की निर्णायक शक्ति प्रादुर्भूत होती है । गौण रूप से यह एड्रीनल, गोनाड्स पर भी अपना प्रभाव डालती है, जिससे क्रोध और काम का नियमन होता है ।

सावधानी और निषेध – हार्ट अटेक, मेरुदंड में कहीं तक दर्द या कठिनाई हो तो प्रशिक्षक की अनुमति के बिना न करें।

शलभासन

शलभ का अर्थ है-पतंगा। इस आसन का प्रयोग करते समय शरीर की स्थिति शलभ के समान हो जाती है। इसलिए इसे शलभासन कहा गया है।

विधि

स्थिति – भूमि पर सीने व पेट के बल लेटें। दोनों पैर सीधे रखें। हथेलियाँ शरीर के बगल में जमीन पर रखें।

1. श्वास भरते हुए एक पैर को बिना घुटना मोड़े धीरे-धीरे ऊपर उठायें।

2. श्वास छोड़ते हुए उसे नीच ले आयें। इसी प्रकार श्वास को भरते हुए दूसरे पैर को बिना घुटना मोड़े धीरे-धीरे ऊपर उठायें। श्वास छोड़ते हुए पैर नीचे लायें ।

3. दोनों पैरों को श्वास भरते हुए ऊपर उठायें। घुटनें मुड़े नहीं। श्वास छोड़ते हुए पैरों को धीरे-धीरे नीचे लायें। हाथों की अंगुलियों का सहारा लेकर पैरों एवं साथल को उठा सकते हैं, अन्यथा हथेलियों को भूमि पर रखें ।

स्थिति- दोनों हाथ की अंगुलियों को जंघा के नीचे सटा कर रखें। हथेलियां एवं पगथलियों के तलवे आकाश की ओर रहेंगे ।

हाथ की अंगुलियों का सहारा लेकर पैरों को उठा सकते है। अथवा अँगुलियों के सहारे बिना भी उठा सकते हैं।

समय और श्वास- श्वास भरते हुए पैर ऊपर उठायें और श्वास छोड़ते हुए पैर नीचे लायें। आसन की स्थिति में कुछ समय सहज श्वास-प्रश्वास में रहा जा • सकता है। आधा मिनट से प्रारम्भ कर दो मिनट तक पैरों को ऊपर रख सकते हैं। -भुजंगासन, शलभासन, धनुरासन और मकरासन चारों

स्वास्थ्य पर प्रभाव- एक ही समूह के आसन हैं। इन्हें पेट के बल लेटकर किया जाता है। भुजंगासन के पश्चात् शलभासन किया जाता है। भुजंगासन के समय गर्दन, सीना और मेरुदंड को ऊपर उठाकर सर्प का आकार बनाते हैं, किन्तु शलभासन में इस के विपरीत पैरों को उठाया जाता है। इसमें सीना, पेट, ठुड्डी, भूमि से स्पर्श करते हैं। यह आसन भुजंगासन से विपरीत है।

इस से मेरुदंड का निचला भाग सक्रिय और लचीला होता है। वहाँ के स्नायुओं पर खिंचाव पड़ता है जिससे रक्त की पूर्ति अच्छी तरह होती है। शलभासन करते समय गुर्दे, अमाशय, यकृत, प्लीहा, छोटी-बड़ी आँत, पेडू आदि मांसपेशियों की मालिश होती है जिससे ये अवयव और सक्रिय होते हैं। पाचन-तंत्र की क्रियाएँ ठीक होने लगती हैं। मेरुदंड के पार्श्व से शरीर के निचले भाग-पैरों की ओर एक नाड़ी (नर्व) जाती है। इससे संबंधित अन्य नाड़ियों में कई लोगों को दर्द होने लगता है। आयुर्विज्ञान में इसे (गृघ्रसी नाड़ी) साइटिका नर्व के नाम से जाना जाता है। साइटिका का दर्द असहनीय होता है। रोगी घूमने फिरने, उठने व बैठने में कठिनाई महसूस करने लगता है । शलभासन साइटिका के दर्द का शमन करता है ।

गुर्दों को इस आसन से अधिक मात्रा में रक्त मिलता है। वे अपना कार्य सम्यक्तया पूर्ण करने लगते हैं। शलभासनके निरन्तर अभ्यास से साइटिका का दर्द शमन होता है । भविष्य में उस के प्रकोप की संभावना कम हो जाती है। कटि भाग की चर्बी दूर होने से वहाँ के अवयव भी स्वस्थ होने लगते हैं। पैरों के स्नायु सुदृड़ होने लगते हैं। उठने, बैठने और चलने आदि में स्फूर्ति आने लगती है। उनके दर्द का शमन भी होता है।

स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ शरीर की सुघड़ता एवं सौन्दर्य की अभिवृद्धि भी होती है। शरीर की कोमलता एवं लचीलापन बढ़ता है। त्वचा में चिकनापन बढ़ता है। फोड़े-फुंसियाँ एवं मुँहासे मिटते हैं, चेहरे के सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती है।

ग्रन्थि-तंत्र पर प्रभाव- शलभासन का प्रभाव प्रमुखतया गुर्दों और उसके ऊपर रहने वाली एड्रीनल ग्रन्थि पर होता है। इसके बाहरी भाग कॉर्टेस से कॉरटीन नामक हॉर्मोन निकलता है। यह हॉर्मोन रक्त के लवणों को सम-अवस्था में लाता है। शर्करा के चयापचय से पुरूषत्व की वृद्धि मे सहभागी बनता है। कॉरटीन हॉर्मोन के अभाव से क्लान्ति, मानसिक अवसाद, त्वचा का ढीलापन आदि बढ़ते हैं। शलभासन कॉरटीन हॉर्मोन को व्यवस्थित बनाए रखने में सहयोगी बनता है।

इस आसन से दूसरी प्रभावित होने वाली ग्रन्थि गोनाड्स है जिसकी अवस्थिति जननांग में है । यह स्वास्थ्य केन्द्र के क्षेत्र में आता है। शलभासन के समय जननेन्द्रियों और उसके आस-पास के क्षेत्र की माँसपेशियों में खिंचाव आता है। इससे पुरूषों में पुरुषार्थ और महिलाओं में मैत्री करुणा आदि सृजनात्मक गुणों का विकास होता है ।

निषेध – जिन लोगों के पेट में अल्सर हो, मेरुदंड के मनके अपने स्थान से खिसक गये हों तथा जिन व्यक्तियों को हृदय का दौरा पड़ चुका हो, वे यह आसन न करें ।

लाभ – इससे मेरुदंड स्वस्थ और हाथ-पैर के स्नायु शक्ति सम्पन्न बनते हैं । सीने और पेट के अवयवों की अच्छी मालिश हो जाती है। नाभि अपने स्थान से हट गई हो तो वह शलभासन से ठीक हो जाती है। मोटापा कम होता है। चर्बी घटती है। कब्ज दूर होती है। वात-रोग नष्ट होता है। भूख बढ़ती है। रक्त के प्रवाह में संतुलन आता है।

धनुरासन

धनुरासन में शरीर की स्थिति धनुषाकार हो जाती है इसलिए इसे धनुरासन कहा जाता है। इसमें मेरुदंड धनुष की तरह मोड़ लिया जाता है। हाथ और पैर धनुष की प्रत्यंचा की तरह हो जाते हैं।

विधि – पेट के बल लेटें। हाथ शरीर के समानान्तर फैलाएं। दोनों घुटनों को • मोड़ें। पैर नितंब पर टिकाएँ। दोनों हाथों से पैरों के टखनों को दृढ़ता से पकड़ें। मुँह बंद रखें। पैरों को जमीन की ओर लाने की कोशिश करें। इससे सीना, घुटने और जंघा तक का भाग ऊपर उठेगा। मात्र नाभि के आस-पास का हिस्सा जमीन से सटा रहता है। शरीर का शेष भाग उठा रहता है।

समय एवं श्वास – इसे आधा मिनट से प्रारम्भ कर धीरे-धीरे तीन मिनट तक करें। पैरों को पकड़ते हुए खिंचाव देते समय श्वास भरें और आगे झूलते समय छोड़ें। एक सप्ताह के अभ्यास के बाद शरीर को आगे-पीछे धकेल कर पूर्ण स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इससे पूरे शरीर की माँसपेशियों के खिंचाव और शिथिलता प्राप्त होती है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – धनुरासन, शलभासन की तरह ही स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी रहता है। मेरुदंड लचीला बनता है गर्दन और पीठ के भाग पर एकत्रित चर्बी दूर होने लगती है। गर्दन, कंधे, पीठ और हाथों पर खिंचाव आने से ये अवयव स्वस्थ, सुन्दर और सुदृढ़ बनते हैं। धनुरासन से भुजंगासन और शलभासन के लाभ स्वत: ही मिल जाते हैं । पैर के पंजों से लेकर सिर तक इस आसन से शरीर प्रभावित होता है। मुख्य रूप से यकृत, प्लीहा, गुर्दे, अग्नाशय एवं आँतों की कार्य-शक्ति बढ़ती है। शेष सभी अंगों की माँसपेशियाँ और स्नायु सशक्त बनते हैं।

नाभि (धरण) के हटने (डिगने) से शरीर में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ पैदा होने लगती हैं। इससे नाभि अपने स्थान पर लौट आती है। शरीर स्वस्थ और चित्त प्रसन्न हो जाता है।

ग्रन्थि-तंत्र पर प्रभाव-पेन्क्रियाज, एड्रीनल, थायमस और थायरायड ग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं। पेन्क्रियाज से इन्सुलीन का स्राव होता है, जिससे शरीर में शर्करा का संतुलन बना रहता है। इसके अभाव से मधुमेह हो जाता है। मधुमेह से मुक्ति के लिए धनुरासन बहुत उपयोगी है।

निषेध – हर्निया, अल्सर, प्रोस्टेट, हार्ट ट्रबल (हृदय रोग), उच्च रक्तचाप आदि व्याधियाँ हों तो धनुरासन न करें। जिन की प्रोस्टेट ग्लेण्ड बढ़ी हुई हो, वे व्यक्ति भी इस आसन को न करें ।

लाभ – मेरुदंड स्वस्थ, हाथ-पैर के स्नायु शक्ति सम्पन्न बनते हैं। सीने और पेट के अवयवों की अच्छी मालिश हो जाती है। नाभि की गड़बड़ी भी दूर हो जाती है। मोटापा कम होता है। चर्बी घटती है एवं कब्ज दूर हो जाती है। वात-रोग नष्ट होता है। भूख बढ़ती है। रक्त के प्रवाह में संतुलन रहता है।

हृदयस्तंभासन

आज हृदय रोग की घटनाएँ छोटी उम्र में इतनी अधिक होने लगी हैं कि व्यक्ति को विश्वास ही नहीं होता कि कब क्या घटित हो जाए योग के मनीषियों ने योगासन एवं प्राणायाम के विभिन्न प्रयोगों के द्वारा हृदय रोग को रोकने के प्रयास किये हैं। योग के प्रयोगों से हृदय रोग की दारुण घटनाएँ नहीं हो सकती, प्रयोगों से ऐसा निष्कर्ष निकलता है।

विधि

स्थिति – पीठ के बल लेटें ।

1. हाथों को सिर की ओर तान कर श्वास भरें। 45° का कोण बनाएँ।

2. पैरों को भी उसी प्रकार तान कर श्वास को बाहर निकालें 45° भूमि से ऊपर उठायें, श्वास रोकें (कुम्भक करें)।

3. दृष्टि को हृदय पर केन्द्रित करें, फिर धीरे-धीरे श्वास लें (पूरक)।

4. श्वास छोड़ते हुए पैर और हाथ भूमि पर ले आयें। कुम्भक करें। श्वास सम होने तक विश्राम करें।
प्रारम्भ में कुम्भक थोड़े समय करें। इसे पाँच बार दोहरायें ऐसा तीन समय करना उचित है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – मेरुदंड के मनके व्यवस्थित होने से स्वास्थ्य ठीक रहता है। प्राणशक्ति संतुलित होती है। पेरा-सिम्पेथैटिक नर्व में खिंचाव पड़ता है, उसका सीधा प्रभाव स्नायु तंत्र पर पड़ता है। वे स्वस्थ व शक्तिशाली बनते हैं ।

भाव निर्मल होने लगते हैं। व्यक्ति का स्वभाव सरल और मृदु बनता है। चिड़चिड़े स्वभाव वालों का मेरुदंड अक्सर टैढ़ा मिलता है।

फेफड़ों पर विशेष खिंचाव आने से कोष्ठकों में रहा हुआ विजातीय तत्व बाहर निकलने लगता है। श्वास की बीमारी ठीक होने लगती है। फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं। रक्त शोधन से मुख पर लालिमा उतरने लगती है। गृघ्रसी (साइटिका) अथवा • पिंडलियों के दर्द से व्यक्ति टेढ़ा होकर लड़खड़ाता है। इस आसन से उसका दर्द और टेढ़ापन दूर होता है । बैठने, खड़ा रहने और चलने में सीधापन आता है। आलस्य दूर होता है, स्फूर्ति आती है।

ग्रन्थि-तंत्र पर प्रभाव – इस आसन से थायमस, एड्रीनल एवं गुर्दे विशेष रूप से प्रभावित होते हैं। शरीर के स्नायु तंत्र में लचीलापन आता है। रक्त संचार सुचारु रूप से होने से शरीर में शक्ति का संतुलन बना रहता है। हृदय की धमनियों के रक्त संचार में रुकावट आने से हृदय पर जो दबाव पड़ता है, वह दूर होने लगता है। हृदयस्तंभासन और नौकासन एक तरह से ही होने वाले आसन हैं। –

समय एवं श्वास – हाथ-पैर ऊपर करते समय पूरक करें, फिर कुम्भक करें । रेचन कर शरीर को शिथिल छोड़ दें। इसे एक बार से पाँच बार करें।

लाभ – 1. हृदय की धमनियों में रक्त का प्रभाव सम्यक् होता है। हृदय की शक्ति का विकास होता है।

2. कंधे, सीना, हृदय और पीठ के दोषों को दूर करता है।

3. पेट सिकुड़ कर भीतर जाने लगता है।

4. पाचन-शक्ति ठीक होती है। वायु (गैस) की कठिनाई का निरसन होता है।

5. नाभि केन्द्र शक्तिशाली होने से शरीर का नाड़ी-तंत्र सक्रिय एवं प्राणवान बना रहता है।

6. सीना, गर्दन व पैर के तंतु शक्तिशाली बनते हैं। साइटिका (गृघ्रसी) एवं हाथों की पीड़ा दूर होती है ।

7. हृदय की धमनियों को प्राणवान बनाता है।

नौकासन

नौकासन हृदयस्तंभासन का विपरीत आसन है। इसलिए इसे हृदयस्तभासन का दूसरा प्रकार भी कहते हैं।

विधि

स्थिति – आसन पर पेट के बल लेटें ।

1. हाथों को मस्तक के पार्श्व से आगे फैलायें ।

2. श्वास भर कर पैर और हाथों को तानते हुए ऊपर उठायें ।

3. शरीर नौका के आकार मे आ जाता है। केवल पेट का हिस्सा जमीन का स्पर्श करता है।

4. श्वास छोड़ते हुए हाथ-पैरों को जमीन पर ले आयें ।

श्वास और समय – हाथ और पैरों को उठाते समय श्वास लें, फिर प्रश्वास करें। नौकासन में रुकते समय श्वास-प्रश्वास सहज और दीर्घ रहेगी। समय प्रति सप्ताह आधा मिनट से बढ़ा कर तीन मिनट करें।

स्वास्थ्य पर प्रभाव – नौकासन में हाथ की अँगुलियों से पैर के अंगुष्ठ तक सम्पूर्ण शरीर में खिंचाव पैदा होता है। उससे नाड़ी तंत्र में रहा हुआ दोष दूर होता है। शरीर में स्फूर्ति आती है। जैसे समुद्र में नौका हवा के थपेड़ों को खा कर मजबूत बन जाती है वैसे ही इस आसन के प्रयोग से शरीर सुदृढ़ और शक्तिशाली बनता है। हृदय और फेफड़ों को इस आसन से शक्ति मिलती है।

ग्रंथितंत्र पर प्रभाव-थायरायड, थायमस, एड्रीनल, गुर्दे आदि इस आसन से प्रभावित होते हैं । इनके स्रावों से संतुलन पैदा होता है। शरीर के स्नायु, प्रसन्न व शक्तिशाली बनते हैं । एड्रीनल के स्राव में परिवर्तन आने से उत्तेजना कम होती है। गुर्दे की शक्ति विकसित होने से रक्त का शोधन सही ढंग से होता है।’

लाभ – पैर से लेकर सिर तक के स्नायु व माँसपेशियाँ सक्रिय एवं शक्तिशाली बनते हैं एवं मेरुदंड के दोष दूर होते हैं। आलस्य दूर होता है, स्फूर्ति आती है।

Prakhar Singh
Prakhar Singhhttps://infojankari.com/hindi/
प्रखर सिंह अपनी पढाई के दौरान से ही योग, अध्यात्म में रूचि रखते हैं और अपनी जानकारियों को साझा करने के लिए कलम उठाई।
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