शिव रुद्राष्टकम् (Rudrashtakam) का प्रसिद्ध काव्य महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण महाकाव्य के उत्तरकाण्ड में आता है। इसमें कुल आठ श्लोक हैं जिनमें भगवान शिव की विभिन्न शक्तियों और रूपों की महिमा गाई गई है। यह एक अत्यंत प्रभावशाली स्तुति है जिसे मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं से मुक्ति दिलाने की शक्ति मानी जाती है।
रुद्राष्टकम का अर्थ और भावार्थ (Rudrashtakam meaning in Hindi)
आइए इस स्तुति को समझने का प्रयास करते हैं:
- प्रथम श्लोक में भगवान शिव को मुक्तिस्वरूप, सर्वव्यापक, निर्गुण, चिदाकाश और ज्ञानमय रूप में वर्णित किया गया है।
- द्वितीय श्लोक में उन्हें निराकार, ओंकाररूप, तुरीय, गिरिराज और महाकाल के भी काल तथा संसार से पार ले जाने वाले कहा गया है।
- तृतीय श्लोक में शिव का शारीरिक रूप बताया गया है – हिमालय के समान श्वेत वर्ण, खुले बालों पर बहती गंगाजी, भाल पर चांद की कांति और गले में सर्पमाला।
- चतुर्थ श्लोक में शिव के चलते कुंडल, सुंदर नेत्र, प्रसन्न मुख, नील कंठ, मृगचर्मा वस्त्र और मुण्डमाला को दर्शाया गया है।
- पंचम श्लोक में शिव को प्रचंड, प्रगल्भ, अखंड, अजन्मा, कोटि भानु प्रकाश, त्रिशूलधारी और भावगम्य कहा गया है।
- षष्ठ श्लोक में उनकी कलारहित, कल्याणकारी, कल्पांतकारी, आनंदप्रदाता, चिदानंदघन और मोहनाशक शक्तियों का वर्णन है।
- सप्तम श्लोक में बताया गया है कि जब तक मनुष्य उमापति शिव के चरणों का भजन नहीं करेगा, उसे शांति और सुख नहीं मिलेगा।
- अंतिम आठवें श्लोक में कवि अपनी असहायता और दुर्बलता का निवेदन करते हुए शिव से उनकी कृपा मांगता है।
रुद्राष्टकम् के संस्कृत श्लोक और हिंदी भावार्थ (Rudrashtakam in sanskrit and hindi meaning)
नमामीशमिशान निर्वाण रूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद: स्वरुपम्। निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाश मकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥
हिंदी भावार्थ: हे ईश! मैं मुक्तिस्वरूप, समर्थ, सर्वव्यापक, ब्रह्मरूप, वेदस्वरूप, निज स्वरूप में स्थित, निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह, अनंत ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वव्याप्त प्रभु को नमस्कार करता हूं।
निराकामोंकारमूलं तुरीयं गिरां ध्यान गोतीतमीशं गिरिशम्। करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥२॥
हिंदी भावार्थ: जो निराकार हैं, ओंकाररूप आदिकारण हैं, तुरीय हैं, वाणी, बुद्धि और इंद्रियों के पथ से परे हैं, कैलासनाथ हैं, विकराल और महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के आगार और संसार से पार लेजाने वाले हैं, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूं।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्। स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लासद्भाल बालेन्दु कंठे भुजंगाः॥३॥
हिंदी भावार्थ: जो हिमालय के समान श्वेतवर्ण, गंभीर और करोड़ों कामदेवों के समान कांतिमान शरीर वाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गंगाजी लहरा रही है, भाल पर बाल-चंद्रमा सुशोभित होता है और गले में सर्पों की माला शोभा देती है।
चलत्कुण्डलं शुभ नेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकंठ दयालम्। मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥
हिंदी भावार्थ: जिनके कानों में कुंडल हिल रहे हैं, जिनके नेत्र और भृकुटि सुंदर एवं विशाल हैं, जिनका मुख प्रसन्न और कंठ नील है, जो अत्यंत दयालु हैं, जो बाघ के चर्म का वस्त्र और मुंडों की माला पहनते हैं, उन सर्वेश्वर प्रिय शंकर का मैं भजन करता हूं।
प्रचण्डं प्रकष्ठं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्। त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥५॥
हिंदी भावार्थ: जो प्रचंड, सर्वश्रेष्ठ, प्रगल्भ, परमेश्वर, पूर्ण, अजन्मा, कोटि सूर्यों के समान प्रकाशमान, त्रिभुवन के शूलनाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले हैं, उन भावगम्य भवानीपति का मैं भजन करता हूं।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सच्चिदानन्द दाता पुरारी। चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥
हिंदी भावार्थ: हे प्रभो! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्पांत करने वाले हैं। आप सदा सच्चिदानंद देने वाले, त्रिपुरासुरनाशक हैं। आप चिदानंदघन और मोहनाशक परमेश्वर हैं, कामदेव के शत्रु हैं। आप मुझपर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्। न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधिवासम्॥७॥
हिंदी भावार्थ: जब तक उमापति महादेव के चरणारविंदों का भजन नहीं करेंगे मनुष्य, तब तक न इस लोक में और न परलोक में सुख, शांति और संताप का नाश होगा। हे सर्वभूतों के आधारस्वरूप प्रभु! आप मुझपर प्रसन्न हों।
न जानामि योगं जपं वा पूजां न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्। जरा जन्म दुःखौघतातप्यमानं प्रभोपाहि आपन्नमामीश शम्भो॥८॥
हिंदी भावार्थ: हे शम्भो! हे ईश! मैं न योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही। हे शंभो! मैं सदा ही आपको नमस्कार करता रहूं। सभी संसारिक कष्टों, विपत्तियों, और दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे। मेरी वृद्धावस्था में आनेवाले विपत्तियों और कष्टों से से रक्षा करें। मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ।
रुद्राष्टकम का उद्गम
रुद्राष्टकम की रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी, जो रामचरितमानस के रचयिता भी हैं। तुलसीदास जी ने इस स्तोत्र की रचना शिवजी की महिमा का गुणगान करने के उद्देश्य से की थी।
शिवजी की स्तुति का महिमामय स्तोत्र रुद्राष्टकम
रुद्राष्टक एक प्रसिद्ध संस्कृत स्तोत्र है, जिसमें भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया गया है। रुद्राष्टकम के प्रत्येक श्लोक में भगवान शिव के विभिन्न गुणों और स्वरूपों का वर्णन है।
रुद्राष्टकम का महत्व और लाभ (Importance and benefits of Rudrashtakam)
रुद्राष्टकम का पाठ करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और भक्त को समस्त दुखों से मुक्ति मिलती है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में शांति, समृद्धि और सद्भावना का वास होता है।
रुद्राष्टकम का पाठ कौन कर सकता है?
रुद्राष्टकम का पाठ कोई भी व्यक्ति कर सकता है जो भगवान शिव की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से उन भक्तों के लिए लाभकारी है जो शिवजी के अनन्य भक्त हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं।
रुद्राष्टकम का पाठ कब और कैसे करना चाहिए?
रुद्राष्टकम का पाठ प्रातःकाल और संध्याकाल में करना अत्यंत शुभ माना जाता है। भक्तों को शिवलिंग या शिव प्रतिमा के समक्ष बैठकर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। पाठ करते समय ध्यान और शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
रुद्राष्टकम के पाठ के लाभ
- शांति और समृद्धि: रुद्राष्टकम का पाठ करने से मन की शांति प्राप्त होती है और जीवन में समृद्धि आती है।
- स्वास्थ्य लाभ: नियमित पाठ करने से स्वास्थ्य में सुधार होता है और विभिन्न बीमारियों से मुक्ति मिलती है।
- आध्यात्मिक उन्नति: रुद्राष्टकम का पाठ व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस अद्भुत स्तुति में शिव की अनंत शक्तियों, उनके विविध रूपों और उनकी अनंत कृपा का गुणगान किया गया है। यह एक अत्यंत ऊर्जावान और प्रभावशाली काव्य है जिसे पढ़कर आत्मा तृप्त होती है। मनुष्य के तन-मन की सारी व्यथाएं दूर हो जाती हैं और आनंद की अनुभूति होती है। ऐसी है रुद्राष्टकम् की महिमा!
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