Batukeshwar Dutt in Hindi: हाँ, ये वही बटुकेश्वर दत्त हैं जिन्होंने भगत सिंह के साथ 8 अप्रैल 1929 (8 april 1929)को दिल्ली असेंबली (Assembly Bombing) में बम फेंका था और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते गिरफ़्तारी दी थी। उनका जन्म 18 नवंबर 1910 को बंगाल के बर्धमान से 22 किलोमीटर दूर औरी नामक एक गांव में हुआ था। वह 1928 में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने।
भगत सिंह (Bhagat Singh) पर संगीन जुर्म के कारण उनको सजा-ए-मौत दी गयी । पर बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काला पानी (अंडमान निकोबार) भेज दिया गया। वहाँ जेल में भयंकर टीबी की बीमारी हो गयी उनको लेकिन उन्होंने वहाँ भी वो मौत को मात दे गए। कहते हैं जब भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी होने की खबर जेल में बटुकेश्वर को मिली तो वो बहुत उदास हो गए क्योंकि उनको अफसोस था कि उन्हें देश की सेवा के लिए फांसी क्यों नहीं दी गयी।
1938 में अपनी रिहाई के बाद वो गांधी जी के साथ आंदोलन में कूद पड़े लेकिन जल्द ही फिर से गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए और वो कई सालों तक यातनाएं झेलते रहे।
1947 में देश की आज़ादी के साथ ही बटुकेश्वर दत्त जी को भी रिहाई मिली। इसी वर्ष उन्होंने अंजलि दत्त जी (Batukeshwar dutt’s wife Anjali dutt) से शादी कर पटना में रहने लगे। आज़ाद भारत में बटुकेश्वर दत्त जी नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी की तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। एक बार उन्होंने बिस्किट बनाने का कारखाना शुरू किया लेकिन इसमें भी असफल रहे।
कहा जाता है कि एक बार साठ के दशक में पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने 50 साल के उम्र में वो आये तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं।
हालांकि बाद में जब यह बात पता चली की बटुकेश्वर दत्त कौन हैं तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी ! 1963 में उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर गुमनामी में जीवन बिताते रहे। सरकार ने भी इनकी कोई सुध ना ली।
1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी- “कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।”
इनकी दशा पर इनके मित्र चमनलाल ने एक लेख लिख कर देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया कि- “किस तरह एक क्रांतिकारी जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा , वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।”
बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई ! सरकार ने इन पर ध्यान देना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भगतसिंह की माँ भी अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची।
भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही-“मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए। उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई। 17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !
मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार, भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ किया गया।